सदाबहार गीतों के रचनाकार- मजरूह सुल्तानपुरी
जगदीश चावला
हमारी फिल्म इंडस्ट्री में हर साल न जाने कितनी फिल्में बनती हैं जिन्हें हम धार्मिक, सामाजिक, हाॅरर, रोमांटिक और यर्थाथवादी खांचे में देख सकते हैं। वैसे फिल्में देखने का शौक मुझे बचपन से ही रहा है लेकिन मैंने हमेशा उन्हीं फिल्मों को देखा जिनकी पटकथा में नवीनता होती थी और जो गीत-संगीत की दृष्टि से समृद्ध कही जाती थीं। इस दृष्टि से हिंदी सिनेमा का वह दौर भी किसी स्वर्णकाल से कम नहीं रहा, जब नौशाद से लेकर, एस.डी. बर्मन, सी रामचन्द्र, शंकर जय किशन सरीखे संगीत निर्देशकों तथा आनंद बख्शी, गुलजार, साहिर लुधियानवी, जावेद अख्तर, समीर, शैलेन्द्र, नीरज, शकील बदांयुनी और मजरूह सुल्तानपुरी जैसे गीतकारों ने फिल्मों को एक नया आयाम दिया।
आज भी मरहूम मजरूह सुल्तानपुरी को भला कौन नहीं जानता होगा जिनके लिखे स्र्पशी फिल्मी गाने और शायरी आज भी ताज़े गुलाब की तरह अपनी खुशबू बिखेरती है। मजरूह का जन्म उत्तर-प्रदेश के जिला सुल्तानपुर में 1 अक्तूबर 1919 को हुआ था। इनके बचपन का नाम असरार उल हसन खान था और उनके पिता पुलिस उपनीरिक्षक थे। इन्होंने अपनी शिक्षा लखनऊ के तकमील उलतीब कालेज से यूनानी पद्धति की मैडिकल परीक्षा पास की थी और इसके बाद में एक हकीम के रूप में काम करने लगे।
चूंकि इन्हें बचपन से ही शेरो-शायरी का शौक था लिहाजा जब इनकी मुलाकात जिगर मुरादाबादी से हुई तो ये भी मुशायरों की शान बन गए। वर्ष 1945 में सब्बो सिद्दीक इंस्टीटयूट द्वारा संचालित एक संस्था ने जब मुंबई में एक मुशायरा रखा तो उसका हिस्सा मजरूह सुल्तानपुरी भी बने। यहीं पर इनकी शानदार प्रस्तुति देखकर तब के एक बड़े फिल्मकार ए.आर. कारदार ने इन्हें अपनी फिल्मों के लिए लिखने का आॅफर दिया, जिसे इन्होंने मना कर दिया। बाद में में इन्हें जिगर मुरादाबादी ने समझाया कि फिल्मों के लिए गीत, गज़ल या गाने लिखना कोई बुरा नहीं है। इससे मिली राशि को तुम अपने घर भेज सकते हो।
फिर इनकी मुलाकात संगीतकार नौशाद से हुई। उन्होंने इन्हें अपनी एक धुनपर एक गाना लिखने को कहा। इन्होंने तब ये गीत लिखा कि ‘गेसू बिखराये बादल आए झूम के’। यहीं से इनका फिल्मी सफ़र शुरू हो गया। बाद में संगीतकार एस.डी. बर्मन के साथ इनकी जोड़ी ऐसी ज़मीं कि इन्होंने उनके लिए अनेक गीत लिखे।
इसमें कोई शक नहीं कि इन्होंने अपनी शायरी और गानों से देश, समाज, सिनेमा और साहित्य को एक नई दिशा दी। चार से ज्यादा दशकों तक सक्रिय रहने से इन्होंने 300 फिल्मों के लिए 4000 से ज्यादा गाने लिखे। एक बार निर्माता-निर्देशक राजकपूर ने इनसे गाना लिखने को कहा तो इन्होंने झट से ये गीत तैयार कर दिया कि, ‘एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल.....।’ नयी राजकपूर ने इन्हें एक हज़ार रूपये देकर इनकी प्रतिभा का सम्मान किया।
बताया जाता है कि इन्हें जवानी में एक तहसीलदार की बेटी से प्यार हो गया था। उसके बाद उसके पिता को जब ये बात नागवार गुज़री तो इनकी मोहब्बत अधूरी रह गई। वैसे मजरूह वामपंथी विचारधार से प्रभावित थे । इन्होंने माक्र्स और एंजिल को खूब पढ़ा। ये अपनी रचनाओं के द्वारा गैर बराबरी के अंधेरे में इंकलाब का सूरज बनकर चमकना चाहते थे। अपनी कलम की नोक से मुंबई के मजदूरों की हड़ताल पर इन्होंने ऐसी इंकलाबी कविता लिखी जिसपर नेहरू सरकार आग बबूला हो गई और तब के गर्वनर मोरारजी देसाई ने इन्हें व बलराज साहनी जैसे कई अन्य बुद्धिजीवियों को आर्थर रोड़ की जेल में बंद कर दिया। ऐसे में जब महरूह से माफी मांगने को कहा गया तो इन्होंने साफ़ शब्दों में मना कर दिया। तब इन्हें दो साल की सज़ा हुई। वर्ष 1951-52 में जब ये जेल से बाहर आए तो 24 मई 2000 तक निरतंर लिखते ही रहे।
वैसे इन्होंने अभिनेता के.एल. सहगल से लेकर सलमान खान तक के लिए गाने लिखे। सहगल को इनका ये लिखा गाना इतना पसंद आया कि ‘जब दिल ही टूट गया हम जी के क्या करेंगे?’ तो उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा कि मेरे जाने के बाद शमशान तक यही गाना बजाया जाये।
इन्होंने अपनी कलम की स्याही से उर्दू शायरी के साथ साथ रूमानियत को भी एक नया रंग और ताज़गी दी। इनके लिखे कलाॅम और शायरी हमेशा दाद देने के योग्य है। जैसे इन्होंने लिखा है कि -‘गमें हयात ने आवारा कर दिया, वरना आरजू थी तेरे दर पे सुबह-शाम करें।’
‘हम है सताए कूचाओं बाज़ार की तरह, उठती है हर निगाह खरीदार की तरह।’
अब सोचते हैं लायेगे तुम सा कहां से हम,
उठने को उठ तो आए तिरेआस्ता से हम।
सचिन देव बर्मन यदि संगीत के बादशाह थे तो मजरूह सुल्तानपुरी गीतों के सम्राट थे। इन दोनों की जोड़ी ने अपने 26 साल के सफर में बीस फिल्मों में 100 से ज्यादा हिट गाने दिये। इनकी जुगलबंदी के कुछ गाने इस प्रकार हैं- चांद फिर निकला....., छोड़ दो आंचल ज़माना क्या कहेगा..., माना जनाब ने पुकारा नहीं...(पेइंग गेस्ट), आज पंछी अकेला है, आंखों में क्या जी..., हम हैं राही प्यार के...(नौ दो ग्यारह), हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए... नज़र लागी राजा तोरे बंगले पे..(काला पानी), जलते हैं जिसके लिए...(सुजाता), होठों पे ऐसी बात..., ये दिल न होता दीवाना...(ज्वैलथीफ) इत्यादि। वैसे भी मजरूह ने जिन अन्य फिल्मों को अपने गीतों से सजाया उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं-सी आई डी, तुम सा नहीं देखा, पत्थर के सनम, चलती का नाम गाड़ी, तीसरी मंज़िल, यादों की बारात, ख़ामोशी, कुदरत, फुटपाथ, आरपार, पाकीजा, मेहंदी, दस्तक, सोहलवां साल इत्यादि।
मजरूह साहब के दीवाने आज भी जहां कहीं इनके लिखे गीत सुन लेते हैं जैसे- महबूब मेरे ये दुनिया कितनी हंसी है, लेके पहला-पहला प्यार, इन्हें लोगों ने ले लीना दुप्पटा मेरा, जलते हैं जिसके लिए तेरी आंखों के दीये, हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए.. तो वे भी एक बारगी झूम के रह जाते हैं।
यहां यह बताना ज़रूरी है कि मजरूह साहब को वर्ष 1993 में दादा साहब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया था और 1964 में उन्हें फिल्मफेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया था। इनका मुंबई में 8 साल की उम्र में 24 मई 2000 को नमोनियां की वजह से देहांत हो गया। इनकी पत्नी फिरदौस जहां सुल्तानपुरी का देहांत भी वर्ष 2000 मंे हुआ था। इनके दो बेटे और तीन बेटियां हैं। इनके एक बेटे का काफी पहले देहांत हो चुका है और दूसरा बेटा फिल्मों से जुड़ा हुआ है।
शाहिद लतीफ की आरजू पर तरक्की पसंद खेमे के साथ इनका जुड़ाव हमेशा इनके बागी तेवरों के साथ दिखलाई दिया। उर्दू के इस अज़ीम शायर और सदाबहार फिल्मी गानों के इस शिल्पकार को मेरा शतशत नमन
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