महफिल में हमारे अफसाने बयां होंगे बहारें हमको ढूढेंगी, न जाने हम कहां होंगे



आखि़रकार 7 जुलाई 2021 को हिंदी सिनेमा के पहले महानायक श्री दिलीप कुमार का 98 साल की उम्र मंे मुंबई के हिंदूजा हास्पिटल में इंतकाल हो गया। यदि वे दो साल और ज़िंदा रहते तो सौ साल के हो जाते। वे पिछले कुछ सालों से लगातार अस्वस्थ चल रहे थे। उनकी यादाश्त भी बहुत हद तक चली गई थी। उनके जाने से हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की आखि़री कड़ी भी टूट गई।
ऐसे लाजवाब अभिनेता के बारे में लिखने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, फिर भी यह सच है कि मैं शुरू से ही राजकपूर, दिलीप कुमार और देवानंद की फिल्मों को देखते हुए बड़ा हुआ हूं।
दिलीप साहब भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे अभिनेता थे, जो दिये गए किरदार को सिनेमाई परदे पर जीवंत कर दिखाने का हुनर जानते थे। उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि अच्छा अभिनय बगैर शारीरिक हावभाव के आंखों और चेहरे की भंगिमाओं से भी किया जा सकता है। अपने छह दशक की लम्बी अभिनय यात्रा में उन्होंने अभिनय की जिन ऊंचाईयों तथा गहराईयांे को छुआ, वह भारतीय सिनेमा के लिए एक असाधारण बात थी। दिलीप साहब कोई मामूली अभिनेता नहीं थे बल्कि वे ऐसे दिग्गज कलाकार थे जिन्होंने अदाकारी के कायदे गढे़ और अपनी अलग शैली को विकसित करते हुए उन्होंने इस विधा को नई बुलंदियां बख्शीं। सधी आवाज़ में ढहराव के साथ अपने संवादों को पेश करना उनकी ऐसी काबलियत थी कि जिसे सत्यजीत रे और डेविड लीन जैसे सम्मानित निर्देशकों ने भी पहचाना। सत्यजीत रे उन्हें ‘द अल्टीमेट मैथड’ अभिनेता कहा करते थे।
11 दिसम्बर 1922 को खै़बर पख्तूनवा के पेशावर (पाकिस्तान) के किस्साख्वानी बाज़ार के इलाके में स्थित अपने पुुश्तैनी मकान में जन्में दिलीप कुमार का वास्तिवक नाम युसूफ खान था। इनके पिता लाला गुलाम सरवर फलों का कारोबार करते थे। उन्होंने जब नैनीताल के रामगढ़ क्षेत्र में सेब के बागानों का ठेका लिया तो दिलीप साहब भी यहां अपने पिता का हाथ बंटाते थे। दिलीप साहब ने अंजुमन इस्लाम हाई स्कूल से शिक्षा हासिल की और जब नैनीताल में बोम्बे टाकीज़ की मालकिन देविका रानी की नज़र इन पर पड़ी तो उन्होंने युसुफ खान से पूछा कि क्या तुम्हें उर्दू आती है? युसुफ के हां कहने पर देविका रानी ने उन्हें मुंबई बुलाया और अपनी फिल्म में काम करने का आॅफर दिया। इस तरह दिलीप साहब को पहली फिल्म ज्वारभाटा मिली। तब देविका रानी को लग रहा था कि एक रोमांटिक हीरों के रूप मंे युसुफ नाम अपील नहीं करेगा। लिहाजा तब के प्रसिद्ध गीतकार और कवि पंडित नरेन्द्र शर्मा तथा लखनऊ के वरिष्ठ साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने, जो देविका रानी के साथ जुड़े हुए थे, इन्हें दिलीप कुमार नाम दिया जबकि देविका रानी इन्हें वासुदेव नाम देना चाहती थीं। काफी मंथन के बाद जब दिलीप कुमार के नाम पर मुहर लग गई तो इन्हें 1944 में बनी फिल्म ज्वारभाटा में काम करने का मौका मिला, लेकिन असली शोहरत इन्हें 1949 में बनीं फिल्म अंदाज़ से मिली। इसके बाद दीदार और देवदास जैसी फिल्मों में दुखद भूमिकाएं निभाने के कारण इन्हें ट्रेजिडी किंग भी कहा जाने लगा।


अपने 77 साल के फिल्मी करियर में दिलीप साहब ने करीब 62 फिल्मों में काम किया, जिनमें कुछ नाम इस प्रकार हैं-मेला, उड़नखटोला, अमर, आन, नया दौर, मधुमति, बैराग, मुगले आजम, दाग़, गोपी, राम और श्याम, कोहनूर, गंगा जमुना, लीडर, दिल दिया दर्द लिया, मशाल, क्रांति, काबुली वाला, सौदागर इत्यादि।
मज़े की बात ये है कि जब देविका रानी ने दिलीप कुमार को अपनी फिल्मों में काम करने की तन्ख्वाह 1250 रूपये बताई तो दिलीप साहब ये सुनकर खुश हो गये कि यह उनका सालाना वेतन है। पर जब उन्हें यह पता चला कि इतने पैसे उन्हें हर महीने मिलेंगे तो मारे खुशी के दिलीप साहब चार रातों तक सो नहीं पाये।
वैसे तो दिलीप साहब की फिल्मों में उनकी अदाकारी के कई शेड्स देखने को मिलते हैं, लेकिन इनकी ज़्यादातर फिल्में बाॅक्स आॅफिस की कसौटी पर काफ़ी ख़री रही हैं।
फिल्म तराना की शूटिंग के दौरान इनका मधुबाला से प्रेम चल रहा है ऐसी ख़बरें भी उड़ीं लेकिन दोनों की शादी नहीं हो सकी। दिलीप कुमार ने वर्ष 1966 में अभिनेत्री सायरा बानों से विवाह किया और विवाह के समय दिलीप साहब 44 वर्ष के और सायरा बानों 22 साल की थीं। वैसे 1980 में दिलीप साहब ने कुछ समय के लिए अस्मां से दूसरी शादी की थी। वर्ष 1980 में इन्हें मुंबई का शेरिफ घोषित किया गया और वर्ष 2000 से वे राज्यसभा के सदस्य भी रहे। इन्होंने 1998 में अपनी फिल्म ‘किला’ के बाद फिल्मों को अलविदा कह दिया था।
वैसे 1962 में जब दिलीप साहब को हाॅलीवुड की फिल्म लारेंस आॅफ अरेबिया में काम करने का आॅफर मिला तो इन्होंने इस फिल्म के लिए यह कहकर काम करने से मना कर दिया था कि अव्वल तो मैं लम्बे समय तक मुंबई से दूर नहीं रह सकता और फिर मुझे जब यहां हिंदी फिल्मों में मुख्य भूमिका निभाने को मिल रही हैं तो मैं हाॅलीवुड में साइड रोल क्यो करूं?
अपने जीवन में दिलीप साहब कई पुरस्कारों से नवाज़े गए। पद्म भूषण, पद्म विभूषण, दादा साहब फालके अवार्ड के अलावा उन्हें 8 बार फिल्मफेयर अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। वर्ष 1998 में उन्हें पाकिस्तान की सरकार ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशाने इम्तियाज़’ से सम्मानित किया तो इस अवार्ड पर शिवसेना ने दिलीप साहब पर अवार्ड वापसी का दबाव तो डाला ही, पर साथ ही साथ इनकी देशभक्ति पर भी सवाल खड़े करने शुरू कर दिये। ऐसे में पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपयी ने इनका साथ देते हुए कहा कि इस अवार्ड को वापस करना या न करना दिलीप साहब की अपनी मर्ज़ी है, लेकिन इनकी देशभक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता। हालांकि सभी जानते हैं कि ऐसे अवार्डस की कोई लीगल वैलिडिटी नहीं होती, लेकिन दिलीप साहब को सम्मानित करने वाली संस्थाएं हमेशा उनकी मुरीद बनीं रहीं।
अभिनय के अलावा दिलीप साहब ने कभी भी अपनी ज़िंदगी को नीरस नहीं होने दिया। वे हिंदी-उर्दू के अलावा तमिल, तेलुगू, कोंकणी, गुजराती, बंगाली, पंजाबी, फारसी, फ्रेंच, जर्मन और फारसी भाषाओं की जानकारी भी रखते थे। उन्हें पढ़ने लिखने का शौक तो था ही, मगर उन्हें क्रिकेट, हाकी, फुटबाल, गोल्फ और शतरंज में भी महारत हासिल थी।
दिलीप साहब सैक्यूलर सोच के व्यक्ति थे और हमेशा हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की बात किया करते थे। अपने समय में उनके संबंध जवाहरलाल नेहरू से लेकर बाल ठाकरे जैसे कद्दावर नेताओं के साथ थे लेकिन इन्होंने कभी भी कोई राजनीतिक फ़ायदा नहीं उठाया। मेरठ के लोग बताते हैं कि दिलीप साहब जब यहां नेता जी सुभाष चंद्र बोस के कमांडर रहे जनरल शहनवाज खान की चुनावी सभा को संबोधित करने आये थे तो सभी हिंदू मुस्लमानों ने उनके कहने पर जनरल साहब को जितवा दिया था और तब से शहनवाज खान लम्बे समय तक केन्द्र सरकार के मंत्री भी रहे।
दिलीप साहब अभिनय के जीते जागते स्कूल तो थे ही, मगर वे उर्दू अदब के भी प्रशंसक थे। कहते हैं कि जब वे किसी मुशायरे को सुनने जाते थे तो मुशायरा ख़त्म होने पर ही घर वापस आते थे। उनके मुंबई वाले घर में उर्दू के शायरों की जो संगोष्ठियां होती थीं उनमें भी कई नामचीन शायर शिरकत करते थे। वैसे दिलीप साहब गालिब और पीर की शायरी के दीवाने थे।
दिलीप साहब ने अपनी 456 पन्नों की आत्मकथा में लिखा है कि किस तरह से उस वक्त के मशहूर उधोगपति जे आर डी टाटा ने एक फ्लाइट मंे उन्हें पहचाना नहीं था। हालांकि दिलीप साहब ने उनसे यह भी कहा था कि मैं फिल्म एक्टर हूं और मेरा नाम दिलीप कुमार है। पर टाटा इस से मुखातिब नहीं हुए। जहाज़ से उतरते समय जब दिलीप साहब ने उनसे हाथ मिलाया तो उन्होंने कहा, ‘मैं जे आर डी टाटा हूं।’ इस के बाद दिलीप साहब ने लिखा कि आप चाहे जितने भी बड़े बन जाएं, कोई न कोई ऐसा होगा जो आपसे भी बड़ा होगा। इसलिए हमेशा अपना लहजा विनम्र और ज़िंदगी सरल रखें।
ये मेरा सौभाग्य है कि मुझे दिलीप साहब का इंटरव्यू करने का मौका मिला और युवा कार्टूनिस्ट इरफान की कार्टून प्रदर्शनी तथा मकबूल फिदा हुसैन की प्रदर्शनी में उनसे रूबरू होने का अवसर मिला। दिलीप साहब का यह कहना मुझे आज भी याद है कि ‘आप चाहें फिल्मों में हों या पत्रकारिता में, हमेशा अपना बैस्ट देने की चेष्ठा करें। मुझे भी जब कुछ लोगांे ने ट्रेडिशियन घोषित किया था तो अपने हुनर को निखारने की प्रक्रिया में मैं फिराख गोरखपुरी साहब का ये मिसरा याद रखता था कि, ‘अक्सीर बन चला हूं, एक आंच की कसर है।’- यानि मैं अमृत के जैसा हो जाऊंगा यदि थोड़ी और आंच में तप जाऊं।’
सायराबानों जी का ज़िक्र किए बिना शायद मेरी यह श्रद्धांजलि अधूरी रहेगी। सायरा जी जीवन पर्यन्त उनके साथ साये की तरह रहीं और उन्होंने अपने प्यार की थैरेपी से उनका जीवन लम्बा बना दिया। सायरा खुद कहती हैं कि दिलीप साहब को कुरान, गीता और बाईबल पढ़ना सुहाता था।
अंततः 7 जुलाई को ही दिलीप साहब का शव पूरे राजकीय सम्मान के साथ सांताक्रूज के जुहू कब्रिस्तान में दफनाया गया। इनके इंतकाल के बाद पेशावर (पाकिस्तान) वाले पुश्तैनी घर में भी अनेक लोगों ने बड़ी संख्या में ग़ैबाना (सांकेतिक) नमाज ए जनाज़ा अदा की। वे कभी नहीं भुलाये जा सकेंगे, न हिन्दुस्तान न पाकिस्तान में।
जगदीश चावला