दुष्यत कुमार
राजनीति और धर्म की गलत हदबंदियों को तोड़ने वाले हिंदी गज़लकार
जगदीश चावला
आजकल यदि आप सरकार के किसी भी काम की आलोचना करें या उसकी गलत नीतिओं को बेकार बताएं। अथवा सत्ता का सुख भोगते नेताओं के गैरजिम्मेदाराना कार्यों पर तंज कसें, तो ऐसे नेताओं व पार्टियों के पिछलग्गू और उनकी की-बोर्ड के क्रांतिकारी आपके पीछे ऐसे पड़ जाएंगे मानो आपने नेताओं की बेईमानी का सूचकांक मांग लिया हो। लेकिन जो लोग अपने हाथों में सच्चाई की मशाल लेकर चलने का दमख़म रखते हैं तो वे पूरी शिद्दत के साथ सरकार से भी जनता के सवालों का जवाब मांगने से पीछे नहीं हटते। ऐसे में मुझे याद आते हैं हिंदी के एक प्रतिष्ठित कवि, कथाकर और गज़लकार श्री दुष्यंत कुमार त्यागी जो अपने सवाल शायरी में पूछते थे तो मंच के सामने बैठे अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता की मुस्कुराहट भी दुष्यंत के सवालों की आश्वस्त मानी जाती थी।
दुष्यंत कुमार का जन्म 3 सितम्बर 1933 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के गांव राजपुर नावदा में हुआ। इनकी प्राथमिक शिक्षा गांव में हुई। इंटर में थे तो इनका विवाह राजेश्वरी कौशिक के साथ हो गया। इसके बाद इन्होंने इलाहबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए. किया और मुरादाबाद से बी.एड करके वे 1958 में आकाशवाणी दिल्ली में तथा इसके बाद मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के अधीन भाषा विभाग में रहे।
इन्होंने जब साहित्य की दुनिया में कदम रखा तो इस समय दो प्रगतिशील शायरों ताज भोपाली और कैफ भोपाली का गजलों की दुनियां में राज़ था। इस समय हिंदी के रचनाकार अज्ञेय जी, गजानन मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल आदि के भी खूब चर्चे थे। दुष्यंत कुमार अपने पिता चौधरी भागवत सहाय और माता राम किशोरी देवी के संस्कारों में पले ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें साहित्य से बहुत लगाव थाउनकी लिखी रचनाओं में ‘एक कंठ विषपायी' और 'मसीहा मर गया' नाटक हैं तो सूर्य का स्वागत, अरबाजों के घेरे, जलते हुए वन का बसंत काव्य-संग्रह है। छोटे छोटे सवाल, आंगन में एक वृक्ष, दूहरी जिंदगी उनके उपन्यास हैं और मन के कोण उनका लघुकथा संग्रह है।
लेकिन इन सबके बावजूद, उनका गज़ल संग्रह 'साये में धूप' कहीं ज्यादा चर्चित रहा है क्योंकि इसी संग्रह में आपातकाल में लिखी उनकी रचनाओं ने जहां देश के आमजन को सत्ता की निरंकुशता के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा दी, वहीं वह उन्हें सरकारी कोप का भाजन भी बनना पड़ा। लेकिन सरकारी नौकरी में रहते हुए दुष्यंत कुमार डरते नहीं थे बल्कि वे हर बार अपनी गजलों के माध्यम से सरकारों से तीखे और चुभते सवाल पूछा करते थे।
दुष्यंत कुमार की कुछ गजलें ऐसी हैं जिनमें बेचैनी, खुलापन और उनकी अपनी मस्ती भी दिखलाई देती हैं। इसी तरह उनके अशार भी बेहद असरदार हैं। उदाहरण के तौर पर
-कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं। गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं।
-कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिए, कहां चराग मय्यसर नहीं शहर के लिए।
-नज़र नवाज़ नज़ारा बदल न जाए कहीं, ज़रा सी बात है मुंह से निकल न जाए कहीं।
-ये जुबां हम से सी नहीं जाती, जिंदगी है कि जी नहीं जाती।
-वो आदमी नहीं है मुक्कमल बयान है, माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।
-कैसे आकाश में सुराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
इसमें शक नहीं कि जहां दुष्यंत कुमार ने अपनी रचनाओं में आम आदमी की आशा -निराशा, पसीने और कराहों का रंग भरा, वहीं पर अपनी रचनाओं में सहज सौंदर्य रचने में भी उनका कोई सानी नहीं था। वे जीवन की सहजता में एक परिवर्तनकारी रचनाकार थेउनकी रचनाओं में इंकलाब के सुरों को भांपते हुए कई नेताओं के चमचे यहां तक कहते थे कि दुष्यंत की रचनाओं में देशद्रोह की बू आती है, इसे गिरफ्तार कर लो। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि वह दुष्यंत की रचनाओं पर अपनी उपेक्षा की स्याही पोत सके।
ऐसे समर्थ रचनाकार का 42 साल की उम्र में 30 दिसम्बर 1975 को ये दुनिया छोड़कर चले जाना हिंदी साहित्य की एक अपूर्णीय क्षति बन गयाफिर भी दुष्यंत कुमार ने धर्म की उन हदबंदियों को तोड़ा जो आपसी भाईचारे को लगभग खंडहर बना रही थीं। आज दुष्यंत कुमार जैसे कलम और भावनाओं के धनी हिंदी गज़लकार बहुत कम दिखाई देते हैं।
दुष्यंत जी की मशहूर कविता
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खडा करना मेरा मकसद नहीं, सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग,
लेकिन आग जलनी चाहिए।