भारतीय रंगमंच में नई क्रांति के जनक इब्राहिम अल्काजी


जगदीश चावला


भारतीय रंगमंच में नई क्रांति के जनक कहे जाने वाले और 1964 से लेकर 1977 तक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक रहे रंगकर्मी इब्राहिम अल्काज़ी का मूल्यांकन करना कोई आसान काम नहीं है।


18 अक्टूबर 1925 को पुणे में जन्में श्री इब्राहिम अल्काजी के पिता साउदी अरब के व्यापारी थे और मां कुवैती थीं। 1947 में देश विभाजन के बाद इनका सारा परिवार पाकिस्तान चला गया था लेकिन अल्काजी वापस भारत लौट आए। इन्होंने पुणे के विसेंट हाई स्कूल और तदन्तर मुंबई के सेंट जेवियर कालेज से अपनी पढ़ाई पूरी की तथा लंदन की रॉयल अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट से प्रशिक्षण भी हासिल किया।



 


रंगमंच के अलावा इब्राहिम अल्काज़ी प्रगतिशील कलाकार समूह से भी जुड़े रहे, जिनमें सूजा, हुसैन, आरा, बाकरे व तैयब मेहता जैसे नामचीन कलाकार थेइन्होंने मुंबई में स्कूल ऑफ ड्रामेटिक आर्ट की स्थापना की और बाद में नाट्य अकादमी, मुंबई के प्रार्चाय भी रहे। इन्होंने “थियेटर यूनिट' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया। ऐसा कहा जाता है कि इन्होंने पहली बार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का प्रमुख बनने से इंकार कर दियाथा क्योंकि तब ये खुद को इस पद के लिए अनुपयुक्त मानते थे। पर बाद में जब ये राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के प्रमुख बने तो न केवल इन्होंने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर को नया रूप दिया बल्कि निर्देशक के तौर पर यहां 50 से ज्यादा अविस्मरणीय नाट्य प्रस्तुतियों का निर्देशन भी किया, जिनमें मोहन राकेश की नाट्य प्रस्तुति -आषाढ़ का एक दिन, धर्मवीर भारती का अंधा युग, गिरीश कनार्ड का तुगलक आदि शामिल हैं।


इसी के साथ इन्होंने ब्रेख्त, शेक्सपीयर व कई यूनानी नाटककारों के नाटकों को भी अपनी प्रस्तुतियों में शामिल किया। इन्होंने अपने नाटकों के लिए ओपन एयर वेन्यू का भी उपयोग किया, मसलन-दिल्ली के पुराने किले में इनके नाटक तुगलक की प्रस्तुति बेमिसाल रही। इन्होंने अपने कार्यकाल में कई लोगों को प्रशिक्षित किया, जिनमें विजया मेहता, बलराम पंडित, ओमपुरी, नसीरूद्दीन शाह, मनोहर सिंह, उत्तरा बावकर, रोहिणी हटगणी आदि के नाम र्वोपरी हैं। इनमें से कइयों ने सिनेमाई परदे पर भी अपने जलवे बिखेरे।


इनके काम में इनकी पत्नी रोशन अल्काजी, बेटी अमल अलाना और बेटे फैसल अल्काज़ी भी अपना हाथ बटाते रहे हैंचूंकि इनकी रूचि का क्षेत्र व्यापाक था अतः त्रिवेणी कला संगम में इनके द्वारा स्थापित 'आर्ट हेरिटेज गैलरी' के माध्यम से इन्होंने कई स्थापित व नवोदति कलाकारों के काम को प्रदर्शित भी किया।


यह मेरा सौभाग्य रहा कि मंडी हाउस की सांस्कृतिक गतिविधियों की कवरेज़ करते समय मुझे इब्राहिम अल्काजी साहब से कई बार मिलने व उनका इंटरव्यू करने का सौभाग्य भी मिला। वे स्वभाव के सरल, म्दुभाषी और अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे, जिनका निधन दिल का दौरा पड़ने से 4 जुलाई 2020 को दिल्ली में हो गयाउनका अचानक चले जाना सच में एक युग का अवसान है, जिसकी भरपाई होना असंभव है। ऐसे में भारतीय नाट्य जगत में उनकी प्रभा और विलक्षण कल्पनाशीलता के कारण आधुनिक रंग परिदृश्य में उनकी तरह का कोई दूसरा विकल्प भी नज़र नहीं आता।


वह अक्सर कहा करते थे कि एक अच्छा रंगकर्मी अपनी प्रतिभा को तभी निखार सकता है जब वह सामाजिक सरोकारों के साथ-साथ अपने युग की नब्ज़ को पहचानने की क्षमता रखता हो रंगकर्म में जीवन को देखने का एक ही तरीका है जो स्थापित रूढ़ियों के खिलाफ प्रश्न करता है और उन्हें रोकता है, जिन्हें बहुत समय पहले सत्य मान लिया गया हो।


वैसे जो रंगकर्म अल्काज़ी के ज़माने में नज़र आता था, वह अब वैसा नहीं रहा। मेरी समझ से रंगकर्म को कभी मुर्दा नही होना चाहिए। पर देखने में आता है कि आज के रंगकर्म में न मूल्य बचे हैं, न सामाजिकता बची है, न ईमान बचा है और न ही संवेदना नज़र आती है। हां, इनका आडम्बर ज़रूर दिखलाई पड़ता है। आज के ज्यादातर रंगकर्मी सोचते हैं कि उन्हें किसी तरह अकादमी पुरस्कार मिल जाये और करना धरना कुछ न पड़े। ऐसे लोग जो रंगकर्म को पैसा व सुविधाएं जुटाने की सीढ़ी मानते हैं वे भी नाटकों से दूर होते जा रहे हैं क्योंकि अब इस काम में उन्हें कुछ नया कलात्मक सृजित करना आता ही नहीं है। हमारे यहां नियमित और टिकट खरीदकर नाटक देखने वालों की भी कमी है। जो कुछ लोग नाटक कर रहे हैं उनमें भी कोई नयापन नहीं है, वे बीस साल पहले के नाटकों को घसीट रहे हैं या उनके सहारे घिसट रहे हैं। वैसे भी आज के समय में ऐसे नाट्य निर्देशक को ढूंढना भूसे के ढेर में सुई तलाशने जैसा काम है, जिसके अंदर अब भी थियेटर बचा हो, वरना तो हर निर्देशक चाहता है कि मलाईदार महोत्सव और तरह-तरह की सुविधाएं खुद ही चलकर उनके सामने आएं। ऐसे निर्देशक कलाकारों की बेबसी, भूख, शोषण, भविष्यहीनता पर बात नहीं करते और न ही संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार पर कोई सवाल उठाते हैं। वे तो केवल अपने निजी विकास के लिए ही एक तरह से सम्मानित रंगकर्मी बने रहना चाहते हैं। पर यह स्थिति बदलनी चाहिये।


रंगमंच बड़े पैमाने पर हो या छोटे पैमाने पर, अगर वे सरकार या राज्य की जिम्मेदारी से चलते हैं तो उनके साथ भी किसी किस्म की लापरवाही, कामकाजी व्यवधान, अनुचित हस्तक्षेप और फेवरटिज्म नहीं होना चाहिये।