लोगों की आजीविका पर कोरोना की मार

 



जगदीश चावला


कोरोना वायरस की महामारी ने जहां दुनिया भर की व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर दिया है, वहीं पर इससे लाखों लोगों की रोजी-रोटी, नौकरी और आजीविका भी ख़तरे में पड़ी नजर आती हैं। ऐसा कोई क्षेत्र या कारोबार नहीं हैं जो कोरोना से प्रभावित न हुआ हो। रेडीमेड गारमेन्ट्स की दुकानों से लेकर आॅटो पाटर््स के शोरूम, ज्यूलरी की शाॅप्स से लेकर होटल, पब्स, डिस्को, नाइट क्लब आदि के कर्मचारियों तथा बाउंसरों के पास अब करने को कोई काम नहीं बचा है। स्कूल-काॅलेज, फैक्ट्रियों आदि के बंद हो जाने से इनके संचालकों के सामने जो संकट पैदा हुआ है, पता नहीं वह कब खत्म होगा? यहां तक कि दैनिक अख़बार, वीकली और मासिक पत्रिकाएं भी अब वित्तीय साधन न होने से बंद होने के कगार तक पहुंच चुके हैं। कुछ समय पहले यूएन के एक अनुमान में कहा गया था कि लगभग आधा मिलियन लोग इस महामारी के कारण बेरोजगार हो चुके हैं। अब तो कई शहरों में बेरोजगारी से तंग आए लोगों द्वारा आत्महत्या करने की ख़बरें भी सामने आ रही हैं। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो लाॅकडाउन की स्थिति में अपने घर या दुकान के कज़र््ा की किश्तें अथवा अपने वाहनों की किश्तें भी नहीं दे पा रहे हैं।
आर्थिकमंदी के इस दौर में ज़्यादातर लोग अब अपनी आजीविका के लिए ही हाथ पैर मार रहे हैं। रोहिणी में एक सब्ज़ी बेचने वाले ने बताया कि यहां एक सरकारी स्कूल के सामने मेरी समोसे की दुकान थी, जहां मेरे समोसे तीन चार घंटे में बिक जाते थे। अब स्कूल में कोई आता जाता नहीं, लिहाजा मैं रेहड़ी पर सब्ज़ी बेचकर अपने बाल-बच्चों का पेट भर रहा हूँ। इसी तरह एक अन्य व्यक्ति ने बताया कि लाॅकडाउन तो खुल गया है परन्तु अब ज़्यादातर लोग स्ट्रीट फूड नहीं खरीदते, जबकि कोरोना की आफत से पहले मेरी रेहड़ी पर छोले-कुलचे और पिज़्जा बर्गर खाने वालों की भीड़ रहा करती थी।
समोसों की जगह पर सब्ज़ी बेचना आसान है लेकिन वे औरतें क्या करें जो रोजाना तीन-चार घरों में झाड़ू-पौंछा लगाकर 8-10 हज़ार रुपये महीना कमा लेती थीं। ऐसे तमाम कामवालियों के लिए पुलिस वेरीफिकेशन कराना भी संभव नहीं है, तो इन्हें काम कौन देगा?
असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को जब दिहाड़ी का काम भी न मिले तो अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी ज़िंदगी कैसे बसर होती होगी?



अभी मैंने हैदराबाद की एक ख़बर पढ़ी जिसमें कहा गया है कि यहां कई पढ़ी-लिखी व प्रोफेशनल लड़कियां, जिनकी उम्र 25 से 35 साल तक है, अब मजबूरी में एग डोनर्स और सैरोगेसी (किराये की कोख) का धंधा अपना रही हैं और वे इसके लिए इनफर्टिलिटी क्लीनिक्स में अपनी सेवाएं दे रही हैं। किराये की कोख के लिए 5 लाख रुपये, एक साल तक रहने खाने का खर्च और दवाओं का खर्च भी ग्राहकों से मिलता है। इसी तरह एग डोनेशन से भी एक ही बार में 75 हजार रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक मिल जाते हैं। पहले गरीब परिवारों की लड़कियां बांझ औरतों का सहारा बन कर अपने किराये की कोख से पैसा कमाती थीं अब बदली स्थितियांे में पढ़ी-लिखी व प्रोफेशनल लड़कियां भी इसी काम की जुगत लगाती हैं।
कई विशेषज्ञों का कहना है कि देर-सवेर कोरोना को अपनी विदाई लेनी पड़ेगी। तब तक के लिए जो उद्योग-धंधे नहीं चले रहे, उनके लिए वर्तमान मंदी भी नया बिजनेस चालू करने का एक अच्छा अवसर हो सकता है। जनरल मोर्टस, बर्गर किंग, सी.एन.एन. आदि की संभावना भी तब हुई थी जब कारोबार और अर्थव्यवस्था बुरी हालत में थे।
विश्व बैंक का अनुमान है कि वर्ष 2020 में वैश्विक अर्थव्यवस्था में 5.2 फीसद की गिरावट आयेगी जबकि द्वितीय महायुद्ध और 1946 के बाद दुनिया की अर्थव्यवस्था ने ऐसा संकट नहीं देखा था।
कोरोना की वजह से कई चलते हुए कारोबार मटियामेट हो गए। ऐसे में सरकारें कह रही हैं कि यदि लाॅकडाउन लागू नहीं करते तो फैलता कोरोना अपना ज़्यादा रूद्र रूप दिखलाता। अब कम से कम लोग अपने काम पर तो आ-जा रहे हैं। आर.बी.आई. के पूर्व गर्वनर रघुराम राजन का कहना है कि भारत से कोरोना को बाहर निकालने के लिए हमें अपनी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के नए तरीके ढूंढ़ने होंगे।
मेरे एक मित्र की नौकरी मंदे में चल रही फैक्ट्री ने लील ली और वे सड़क पर आ गये। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और वाहनों के सैनिटाइजेशन का काम शुरू कर दिया बाज़ार से सैनिटाइजेशन की एक मशीन खरीदकर अब वह 10 कारों की सैनिटाइजेशन करतंे हैं और 500 प्रतिकार के हिसाब से 5000 रुपया महीना कमाते हैं। खाली बैठने से ऐसे छोटे मोटे काम करने से आदमी की इज्ज़त नहीं घटती। वैसे भी बेरोजगारी तब पैदा होती है जब आदमी काम करने के योग्य हो, लेकिन उसे काम के अवसर न मिलें।