धार्मिक दुकानों, मृत्युभोज और महंगी शादियां पर लगे प्रतिबन्ध 


(अब हम सभी को ऑल इन वन धार्मिक स्थलों की आवश्यकता है)  



            प्रियंका सौरभ



कोरोना महामारी ने  जहाँ पूरी दुनिया में उथल.पुथल मचा दी है। सब कुछ एक जगह रोक कर रख दिया है।   दुनिया प्रकृति के इस कहर पर स्तब्ध है।   मगर हम दूसरी तरफ देखे तो हमें कुछ सृजनात्मक करने और इस आपदा से नए अवसरों के साथ अपनी सोच और कर्मों को बदलने की चेतावनी भी मिली है।  सालों से हम एक अंधी दौड़ में भागमभाग रहें और हमने जीना सीखा ही नहीं।  तभी तो अचानक आई इस आपदा ने पूरी दुनिया को लॉक करकर रख दिया।  


अब विचारणीय ये है की हम क्या थे घ् और क्या होने की जरूरत है।  हम अपने तौर तरीके बदल कर समाज के साथ सामंजस्य बनाकर कैसे सर्वहितकारी कार्य कर सकते है।  ये एक सबसे बड़ा प्रश्न है घ् कोरोना काल में मेरे विचार से हमने तीन चीज़ों को बड़े नजदीक से देखा जो हमारे समाज को दीमक की तरह सदियों से खोखला करती आई है।  ये तीन है. धार्मिक उन्मादए बेवजह का शादी में खर्चा और मृत्युभोज।  इन तीनों के कोरोना ने चीथड़े उड़ा दिए और समाज के सामने इन की असलियत उजागर करके रख दी।  इनको बढ़ावा देने वाले ठेकेदार इस दौरान अपने घरों में बंद रहे।  


मैं किसी धर्म विशेष की विरोधी नहीं हूँ।  वैसे भी धर्म आचरण में होना चाहिए।  न की फालतू के दिखावों  और लोगों की आँख बंद कर उनको लूटने की संस्था चलाकर गलत राह दिखाने में।  काश हम लाखों मंदिर.मस्जिद न बनाकर देश की अरबों की सम्पति स्वास्थ्य और शिक्षा पर खर्च कर पाते।  अगर ऐसा होता तो धर्म विशेष की आड़ में ये देवी.देवताओं के कांट्रेक्टर न पैदा होते।  वैसे भी ईश्वर एक हैएसर्वव्यापी है तो उसके लिए इतने ताम. जाम की क्या जरूरत घ् जो भोले.भाले लोगों से दुःख  दर्द  मिटाने के बहाने देवी देवताओं के नाम पर धन.सम्पति लूटते   है और धर्मिक ठेकदार उनका मजा लेते है।  शायद अब सबकी आँख खुल गई होगी।  कोरोना के समय एक ही भगवान् काम आया वो था डॉक्टर और अन्य कर्मियों के रूप में छिपा सच्चा इंसा।। कहते है मात्र भारत में ही छत्तीस करोड़ देवी.देवता हैं ;कहावत के अनुसारद्ध ऐसे में क्या एक देवी.देवता भारत के तीन.चार लोगों को कोरोना से नहीं बचा सकता था।।



मेरा प्रश्न इन देवी देवताओं के वजूद और व्यक्तित्व पर नहीं है।  हो सकता है वो अपने दौर में समाज के अच्छे व्यक्ति रहें हो और उन्होंने मानवता के हित में कार्य किये हो।  मगर हमने तो उलटी राह पकड़ रखी है।  इन महान  लोगों की अच्छी बातों को न बताकर हमने इनके नाम पर मंदिर.मस्जिद बनकर फसाद करवाने शुरू कर दिए।  बड़े.बड़े मठ बना दिए और लाउडस्पीकर लगाकर समाज में शांति को भंग कर दिया।  द्वियता के सपने दिखाकर लोगों को लूटना शुरू कर दिया।  मगर अब सबकी हवा निकल गई।  कोरोना काल में वो मठाधीशएपुजारी और अजानी अपने घरों में दुबक कर जान बचाते नज़र आये।  ईश्वर और अल्लाह तालों में कैद हो गए।  मैं इस दुनिया को चलाने वाले अदृश्य के  अस्तित्व पर सवाल नहीं कर रही।  पूछ रही हूँ उनसे जिन्होंने उसके नाम पर दुकाने खोलकर बैर बांधना शुरू किया।  और बेवजह देश की नेक कमाई को इन पत्थरों में दिव्यता ढूंढ़ने में लगा।  हाँ देश के कुछ संस्था धर्म के नाम पर वास्तव में वैज्ञानिक और समाज हितेषी कार्य करती है और उन्होंने कोरोना काल में भी मानवता को खुद जान पर खेलकर बचायाए उनकी कार्यशैली कमाल की है।  


अब बात करते है समाज पर बोझ बनीएथोपी गई परम्परा मृत्यु भोज की।   बड़ा दुःख होता जब किसी घर से कोई आदमी जाता है और उस दुःख की घडी में सात सौ.आठ सौ लोगों को खाना खिलाने का प्रबंध करना श् किसी गरीब का तो सब कुछ बिक जाता हैंए ऐसा करने में।  क्या अब कोरोना के दौरान सामान्य मृत्यु नहीं हुईघ्  काज पर लोग नहीं आयेघ् अब भी तो दिवंगत आत्मा को शांति मिली होगी।  फिर ये बेवजह की मृत्यु भोज परम्परा हम क्यों सदियों से ढो रहें है घ् सोचना होगा और हमे बदलना होगा।  हां ये सही है कि जिस घर से आदमी जाता हैय उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं होती।  इसलिए दस .ग्यारह दिन जब लोग उनके आस पास होते है तो वो घटित दुःख को भूल जाते है।  और धीरे.धीरे सामान्य हो जाते है।  इस परम्परा  को चाहे तो लोग अपनी मर्ज़ी से रख सकते है।  मगर उन पर दंडात्मक मृत्युभोज क्यों।घ्और क्यों पैसे वाले लोग इसे एक धर्म मानकर समाज में बढ़ावा देते है। अगर उनको धर्म ही करना है तो उस पैसे से कोई स्वास्थ्य. शिक्षा से सम्बन्धी  कार्य किया जा सकता है।


अब बात आती है समाज में होने वाली महंगी शादियों की।  जिन्होंने भारतीय समाज का जितना सत्यानाश कियाए उतना दुनिया में कहीं नहीं किया।  यहाँ के लोग दिखावे और आपसी प्रतियोगिता में अपने जीवन का सब कुछ दांव पर लगा देते है।  और इन सबको हासिल करने के लिए रिश्तों और अपने जमीर की बलि दे देते है।  अब क्या रहा घ्घ् १०.15 लोगों के माध्यम से भी शादियां हुई।  खर्चे घटे गरीबों की लड़कियों की भी शादियां हुई और अमीरों की भी। फिर क्यों दहेज़ और खर्चे की प्रतियोगता से समाज और रिश्तों को दांव पर रखें।  बचिए इन सबसे। कोरोना ने हमे वो सिखाया जो कोई नहीं सीखा पाया।  हम ये सोच रहे थे की ये जरूरी है लेकिन वो अब जरूरी नहीं है।   मान लीजिये अब तो सब।  


हमारी सरकारी को अब इन तीनों के लिए सख्त कानून बनाने की जरूरत है।   मैं नहीं कहती की धार्मिक संस्थाएं बंद हो।  मगर एक में सब हो।  जब धर्म बैर नहीं सीखाता तो अलग.अलग क्यों घ्घ् अलग.अलग  की बजाय सब देवी. देवता एक जगह हो।  बचे हुए पैसों से उस गाँव या क्षेत्र में स्वास्थ्य और शिक्षा पर लगाया जाए।   मृत्युभोज पर पूर्ण प्रतिबन्ध हो।  कोई ऐसा करे तो सजा का प्रावधान हो।  अगर किसी को  ऐसा करके धर्म कमाना है तो समाज हित में अन्य कार्यों पर वो पैसा लगाए।  और शादी के लिए तो 10 से 20 लोगों की लिमिट लगा देनी चाहिए।  इसमें देरी का कोई सवाल ही नहीं बचता।  अर्थव्यस्था का तर्क देने वालों के लिए इतना काफी होगा कि इन तीनों के अलावा अर्थवयवस्था मजबूती  और बहुत रास्तें है।


चित्रांकन: आदित्य शिवम् सुरेश एवं अंजलि विपिन सुभाष।