संगीतकार मदन मोहन
जगदीश चावला
मेरे एक टीचर थे सैयद हादी हुसैन साहब । वे " स्वभाव से काफी सरल, शालीन, हंसमुख और अनुशासन प्रिय होने के साथ साथ भारतीय संगीत की बारीकियों को भी अच्छी तरह जानते थे। उन्हें जब भी खाली समय मिलता तो वे अपने हारमोनियम पर फिल्मी गानों की धुनें बजाकर उनका आनंद लिया करते थे। उनका कहना था कि संगीत आत्मा की खुराक है और हमारा फिल्मी संगीत हमारी संस्कृति का एक हिस्सा है।
मैं उस समय 12वीं कक्षा में पढ़ता था जब मैंने हुसैन साहब तथा उनके परिवार वालों के साथ सहारनपुर के नावल्टी सिनेमा में सितम्बर 1958 में रिलीज़ हुई विमल राय की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म 'मधुमती' देखी थी। संगीतकार सलिल चौधरी और गीतकार शैलेन्द्र के गानों से सजी इस फिल्म ने न केवल लोगों को सम्मोहित किया बल्कि दिलीप कुमार और वैजयंती माला की अदाकारी ने भी इस फिल्म को चार चांद लगा दिए थे। इस फिल्म के कुछ गाने थे- 'सुहाना सफर ओर ये मौसम हसीं', 'घड़ी घड़ी मेरा दिल धड़के', आजा रे परदेसी', टूटे हुए ख्वाबों में', चढ़ गयो पापी बिछुआ' आदि आज भी गुनगुनाने को जी करता है क्योंकि इनमें बेहतरी, अल्फाजों के साथ साथ दिलकश धुनों का सामंजस्य हमें एक रोमांटिक, दुनिया की सैर कराता है और बतलाता है कि प्यार कभी मरता नही है।
इस कालजयी फिल्म को देखने की बाद जब मैंने 50-60 और 70 के दशक की फिल्मों के गानों पर गौर किया तो मुझे लगा कि वह दौर फिल्मी गानों का एक स्वर्णिम युग था। जिसमें नौशाद से लेकर एस. डी. बर्मन, सी रामचंद्र, शंकर जय किशन आदि संगीतकारों के योगदान को नहीं भुलाया जा सकता, जिन्होंने अपने अपने अंदाज से फिल्मी संगीत को समृद्ध बनाया।
वैसे तो गायन, वादन और नृत्य के समावेश को संगीत कहते हैं और इस दृष्टि से गाना, बजाना और नाचना हमेशा उदास दिलों को राहत पहुंचाने का ही काम करता है। मुझे याद है कि फिल्मों में संगीत का वितरण भी मूक फिल्मों के ज़माने से शुरू हुआ था जिसमें कुछ साज़िंदे परदे के सामने पिट पर बैठकर फिल्म की कहानी और विषय वस्तु के अनुसार अपना संगीत बजाते थे। पहले एक माइक्रोफोन पर गाने व कोरस रिकार्ड किए जाते थे और अब तो कई वाद्ययंत्रों का पूरा बैंड ही गीत संगीत को नए आयाम देने में जुटा है।
वैसे तो फिल्मी संगीत में प्रायः सभी संगीत निर्देशकों ने अपने कई प्रयोग किए हैं। नई नई धुनें भी बनाई लेकिन फिल्मी संगीत को गजलों से सजाने का कार्य संगीतकार मदन मोहन ने किया वैसा और कोई नहीं कर पाया।
संगीत निर्देशक मदन मोहन का पूरा नाम मदनमोहन कोहली था और उनका जन्म 25 जून 1924 को एरबित-इराक में हुआ था। उनके पिता राय बहादुर चुन्नी लाल इराकी पुलिस के साथ एकाउटेंट जनरल का काम करते थेवे बाम्बे टॉकीज और फिल्मिस्तान जैसे स्टूडियोज़ के साझीदार भी थे। मदन मोहन को गीत-संगीत का बचपन से ही शौक था। ऐसे में इराक से भारत आने पर उन्होंने पहले देहरादून में सेना की नौकरी की फिर कुछ समय तक लखनऊ में रहकर आकाशवाणी में काम किया, जहां इनकी मुलाकात संगीत जगत से जुड़ी कई बड़ी हस्तियों जैसे उस्ताद फैय्याज खां साहब, उस्ताद अली अकबर साहब, बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसे गायकों से हुई। इसके बाद जब वे मुंबई गए तो वहां भी इन्हें शंकर जय किशन, लक्ष्मीकांत प्यारे लाल, कल्याण जी आनंद जी, नदीम श्रवण, जतिन सलिल आदि से मिलने का मौका मिला और वे यहां पर एस.डी बर्मन, श्याम सुंदर तथा सी रामचंद्र जैसे नामी संगीतकारों के एसिसटेंट भी रहे। इनका विवाह 1953 में हुआ और इनकी पत्नी शीला कोहली बहुत अच्छी महिला थीं।
यह मदन मोहन ही थे जिन्होंने तलत महमूद जैसे गायक और लता मंगेशकर जैसी गायिका की आवाज़ को अपने संगीत से ज्यादा प्रमुखता दी और इन्हें के दम से कई फिल्मों की बेहतरीन कम्बोजिंग भी की। मदन मोहन अपने संगीत की धुनों को तैयार करने में काफी मेहनत करते थे और गजल व गानों की रचना में शब्दावली का ख़ास ख्याल रखते थे।
इसमें शक नहीं कि संगीत में गजलों की सेवा जी जान जैसी मदन मोहन ने की, वैसा कार्य अन्य कम्बोज़र नहीं कर पाया। अपनी धुनों की यात्रा में मदन मोहन के एक से एक बेहतरीन गज़लें हिंदी फिल्मों को दी। जैसे अनपढ़ में उनकी गजल- 'आपकी नज़रो ने समझा प्यार के काबिल मुझे' अब एक कल्ट बन चुकी हैं। इसी तरह फिल्म दस्तक में उनकी धुनों से सजी गजल- 'हम है मत-ए-कूचा औ बाज़ार की तरह' को भी लोग याद करते हैं।
किसी भी गीत-संगीत को बेहतर व कालजयी बनाने के लिए संगीत निर्देशक, गायक अथवा गायिका और गीतकार के बीच अच्छे तालमेल का होना ज़रूरी है। इस दृष्टि से मदन मोहन के पसंदीदा गीतकार रज़ा मेहंदी अली खान, अली जान, राजेन्द्र कृष्ण, कैफी आजमी ही रहे। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान लगभग सौ से ज्यादा फिल्मों में अपना संगीत दिया।
मजे की बात ये है कि उनकी हर फिल्म में उनके गानों व संगीत को न केवल जमकर सराहा गया बल्कि यह ढूंढना भी मुश्किल है कि उनकी किस फिल्म के गाने तनिक हल्के थे। वे कौन थी, मेरा साया, अनपढ़, दस्तक अदालत, हकीकत, मौसम, हीर रांझा, आंखें, दुल्हन एक रात की, जेलर, मनमौजी, मुनीमजी, संयोग आदि फिल्में आज भी उनके सर्वोत्तम संगीत की साथी कहलाती हैं। फिल्म 'दस्तक' के लिए उन्हें सर्वोत्तम संगीतकार का पुरस्कार भी मिला।
उन्हें शराब पीने की आदत भी थी जो उन्हें ले डूबी और इस तरह 24 जुलाई 1975 को इस महान संगीतकार का देहांत हो गया। यहां ये यह बताना जरूरी है कि इनके मरणोपरांत भी इनकी बनाई व अप्रयुक्त धुनों का इस्तेमाल किया गया। इन्हीं धुन के लिए जावेद अख्तर ने फिल्म वीर ज़ारा के लिए 'तेरे लिए' जैसा गीत भी लिखा। जो कालांतर मे काफी मशहूर भी हुआ। इनकी मौसीकी से सजी फिल्म लैला मजनूं और मौसम इनके निधन के बाद रिलीज़ हुई और ये दोनों फिल्में भी उत्कृष्ट संगीत की वजह से हिट रहीं।
मदन जी के बारे में संगीतकार ख्याम ने सही कहा था कि मदन मोहन संगीत के बेताज़ बादशाह थे जबकि उन्होंने शास्त्रीय संगीत अथवा सुगम संगीत की बकायदा कोई प्रशिक्षण नहीं लिया था। बेशक उनकी कुछ फिल्में फ्लॉप भी रही लेकिन उनके संगीत का मैय्यार कभी गिरा नहीं ।