भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत


सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत आएगा, क्योंकि यह सार्वजनिक प्राधिकार यानी कि पब्लिक अथारिटी है। इस तरह मुख्य न्यायाधीश रजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले को बरकरार रखा जिसमें चीफ जस्टिस के पद को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की बात कही गई थी। सीजेआई के दफ्तर को आरटीआई के अंदर लाने की मांग आरटीआई ऐक्टिविस्ट शुरू से कर रहे थेउनका मानना था कि इसके बगैर इस कानून का कोई खास मतलब नहीं रह जाएगा। लेकिन खुद टॉप जुडिशरी में ही इसे लेकर मतभेद रहे हैं। जब दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि पारदर्शिता से न्यायिक स्वतंत्रता प्रभावित नहीं होती, तो सुप्रीम कोर्ट के सेक्रटरी जनरल ने इस पर आपत्ति की और इस फैसले को चुनौती दी। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस भी इस आदेश से सहमत नहीं थे। बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले से इस विवाद को विराम दिया है और आरटीआई कार्यकर्ताओं को राहत दी है। हालांकि साथ में उसने यह भी कहा है कि सूचना के अधिकार कानून का इस्तेमाल न्यायपालिका पर निगरानी रखने के हथियार के रूप में नहीं किया जा सकता और पारदर्शिता के मसले पर विचार करते समय न्यायिक स्वतंत्रता को भी ध्यान में रखना होगा। पीठ ने स्पष्ट किया कि कॉलेजियम द्वारा न्यायाधीशों के नामों की सिफारिशों की जानकारी दी जा सकती है, इसके कारणों की नहीं। चूंकि मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय कुछ शर्तों के साथ ही सूचना अधिकार कानून के दायरे में आएगा इसलिए यह समय के साथ ही साफ हो पाएगा कि उससे क्या जानकारी हासिल की जा सकती है और क्या नहीं। सूचना के अधिकार के लिए यह स्वर्णिम क्षण है, लेकिन मामले का दूसरा पहलू यह है कि यह कानून ही पटरी से उतरता जा रहा है। जनता को समय से सूचनाएं नहीं मिल रहीं और जब-तब मिल भी रही हैं तो ऊटपटांग, जिनका विषय से कोई संबंध ही नहीं रहता। सूचना देने में कोताही करने वाले अफसरों पर जुर्माना भी नहीं लगाया जा रहा है, जिसके चलते शिकायतों की बाढ़ आ गई है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनैशनल इंडिया की पिछले साल की रिपोर्ट के मुताबिक 2005 से 2016 के बीच आयोगों को 18 लाख से ज्यादा शिकायतें पहुंचीं। गौरतलब है कि ये शिकायतें सेकंड अपील थीं। यानी पहली अर्जी पर जब ध्यान नहीं दिया गया तो आवेदकों को शिकायत के साथ दोबारा अपील करनी पड़ी। कई राज्यों में सूचना आयुक्तों के पद खाली पड़े हैं। आज जब भारत के मुख्य न्यायाधीश ने खुद को इस कानून के दायरे में ले लिया है तो क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि वे इससे जुड़ी व्यापक समस्याओं पर ध्यान देंगे और इसे कारगर बनाने के लिए कोई ठोस पहल करेंगे?