रावण उपहास का पात्र नहीं!


पर्वों की प्राचीन परम्परा में विजयादशमी का पावन पर्व प्रत्येक आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को आता है। विजयादशमी रामकथा के स्वरूप की व्याख्या करने का एक सशक्त माध्यम है। रामकथा देश की विविध भाषाओं में लिखी गयी।


प्रख्यात आख्यानों में इसी पावन दिन को नक्षत्रों के उदय हो जाने पर विजय नामक काल के आगमन की आस्था माना गया है। इसे सभी कामनाओं के सिद्धिदाता के रूप में स्वीकार किया गया है। इन्द्र देवता इसी दिन प्रयाण करके वृत्तासुर पर विजयी होते हैं। इसी पावन दिन पर विराट नरेश ने गोरक्षार्थ कौरवों से संघर्ष के समय भागने का प्रयास जैसे ही किया अर्जुन ने रोकते हुए शमीवृक्ष से अपने धनुष और वाण निकाल कर सफलता अर्जित की। अपने अज्ञातवास के एक वर्ष के दिनों में अर्जुन ने अपना धनुष वाण शमीवृक्ष में छिपाकर अन्य भाइयों समेत विराट के यहाँ नौकरी की थी। शमीवृक्ष की पूजा इसी दिन की जाती है। अनेक आख्यान हैं।


विजयादशमी पर रावण का पुतला जलाया जाता है। असत्य पर सत्य की विजय का यह प्रतीक माना गया है। रावण वेद और संस्कृत का विद्वान था। वह कुबेर भ्राता, ऋषि पुलस्त्य का पौत्र और लंका का नरेश था। सुमाली की कन्या, विश्रवस-पत्नी निकषा का पुत्र, सिद्ध शंकर भक्त, ताण्डव स्रोत का रचयिता था दशानन। उसकी मृत्यु के ही बाद राम ने विभीषण से बताया (बाल्मीकि रामायण)- राक्षसराज रावण समरांगण में असमर्थ होकर नहीं मरा। इसने प्रचंड ही पराक्रम किया है। इसे मृत्यु का कोई भय ही नहीं था। यह देवता रणभूमि में धराशायी हुआ है। पुराणों में वर्णित है कि रावण ने सत्त तपस्या से विधाता को प्रसन्न कर दिया। महाबली तो वह इतना था कि शिव पार्वती के साथ कैलाश ही उठा लिया था।


विजयादशमी के दिन रावण का जीवन दर्शन सम्यक रूप से हो जाता है। जब तक मनुष्य के चित्त में सत्य, असत्य का संघर्ष बना रहेगा, उस समय तक प्रतीक रूप में रावण का जीवन अस्तित्व में बना ही रहेगा। उसकी कभी मृत्यु संभव ही नहीं। मनुष्य को मात्र अपने कर्मों का ही नहीं बल्कि अपने सम्बन्धियों और मित्र के दुष्कर्मों का भी परिणाम मिलता है। मनुष्य की प्रगति में अहं बाधक बना रहता है। अहंकार के समाप्त होते-होते चित्त की विमलता बढ़ती जाती है। दूसरों का अहित करके ऊँचाई पाना बड़ा सरल लगता है। विजयादशमी पर्व पर प्रत्येक स्थान पर रावण के पुतले जलाये जाते हैं। परन्तु रावण से कोई शिक्षा नहीं लेता। तेजस्वी और राम के द्वारा प्रशंसित रावण इस समय सभी के तिरस्कार और उपहास का विषय है। उसके इस जीवन से कोई व्यक्ति शिक्षा लेने के लिए अमन को नहीं प्रेरित करता।


इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की। बाल्मीकि और तुलसीदास ने इसका उल्लेख अपनी स्मृतियों में नहीं किया है। तुलसीदास लिखते हैं कि वर्षा ऋतु के चार मास राम ने पंपापुर में बिताए थे। शरद ऋतु के आरम्भ होते ही राम ने सीता को खोज को प्रेषित किया। भविष्योत्तर पुराण के अनुसार विजयादशमी के दिन शुक्र पुतला बनाकर रावण के हृदय को वाण से बेधने की परम्परा है। यही बाद में रामलीला से जुड़ गया। रामकथा और राम लीला मंचन में रावण का चरित्र विशेष महत्व रखता है।


विजयादशमी के दिन मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने का सन्देश मिलता है। रामकथा का आलोक इसी बहाने पूरे जनमानस को प्राप्त होता है। रामलीलाओं की विविध शैलियाँ इसमें देखी जाती हैं। मेघा पंडित के साथ काशी में तुलसीदास भी रामकथा के प्रचार में रामलीला करते थे। अमूल्य निधि के रूप में रामकथा की सुधा इन्हीं पर्वो के द्वारा घर-घर का कंठहार बन जाती है।