क्या वेश्यावृति वैध होनी चाहिए?
जगदीश चावला, वरिष्ठ पत्रकार
साहिर लुधियानवी ने जब एक फिल्म के लिए यह गाना लिखा था कि 'औरत ने जन्म दिया मर्दो को, मर्दो ने उसे बाजार दिया। जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा व्यापार किया।' - तो तब से अब तक महिलाओं की स्थिति में भले ही काफी सुधार दिखलाई देते हों लेकिन उनकी जिस्मफरोशी के बाजार आज भी खुले नजर आते हैं। सदियों से चली आ रही देह-व्यापार की मंडी में वेश्याओं को कभी देवदासी, नगर वधु, विनोदिनी और गणिका कहकर पुकारा गया हो, लेकिन समाज में उनको कभी भी इज्जत की निगाह से नहीं देखा गया। यहां तक कि उनकी औलादों को जायज संतान भी नहीं समझा जाता। भले ही एक वेश्या की कोख से जन्म लेने वाले बच्चे किसी उच्च व कुलीन खून के हों या निम्नवर्ग के। देश में ऐसे अनेक लोग हैं जिनकी रातें वेश्याओं के कोठों पर गुजरती हैं जबकि दिन के उजाले में वे वेश्याओं से दूरी बना कर रखते हैं। जिस्मफरोशी के बाजार की तंग और सीलन भरी कोठरियों में राजनीतिबाजों से लेकर धर्म के ठेकेदारों तक की आमद रहती है, जो बाड़ में अपना मुंह छिपाकर वहां से खिसकते नजर आते हैं।
ऐसे में सआदत हसन मंटो की कहानी 'काली सलवार' की सुल्ताना और 'ठंडा गोश्त' की कुलवंत कौर जैसी हजारों औरतें देश के बदनाम चकलाघरों में अपना जीवन किन नारकीय स्थितियों में व्यतीत करती हैं, यह देखने की फुर्सत भी देश के रहबरों को नहीं है।
इस धंधे के जानकारों का कहना है कि आज वेश्याओं को भले ही 'सेक्स वर्कर' कहा जाता है लेकिन यह अब देश को व्यापारिक रूप से जोड़ने वाली जी.टी. रोड के फुटपाथों से लेकर पंचतारा होटलों तक में अपना विस्तार पा चुकी है। रेड लाइट एरिया के नाम से प्रसिद्ध कोलकाता का सोनागाछी बाजार एशिया में देह-व्यापार की सबसे बड़ी मंडी है जहां 10 साल से लकर 50 साल तक की वेश्याएं रहती हैं। वैसे इन वेश्याओं की बसावट दिल्ली के जी बी रोड़, मुंबई के कमाठीपुरा, ग्वालियर के रेशमपुरा, पूना के बुधवार पथ, वाराणसी की दाल-मंडी, भुवनेश्वर के माली शाही, मुज्जफर नगर के चर्तुभुज क्षेत्र और आंध्र-प्रदेश के पंडापुरम एवं गुड़ियाज जैसी कई बस्तियों में भी है।
महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय की एक रिर्पोट के अनुसार हमारे देश में 30 लाख से ज्यादा वेश्याएं हैं जबकि गैर-सरकारी आंकड़ों में इनकी संख्या डेढ़ करोड़ के आस-पास बताई जाती है। इस धंधे में बांग्लादेश, भूटान और नेपाल की लड़कियां भी हैं जबकि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की लड़किया बहुतायत में हैं। वैसे देश में 1100 रेडलाइट एरिया चिन्हित किए गये हैं जबकि अकेले दिल्ली के जीबी रोड़ के 116 कोठों में करीब 4500 सेक्स वर्कर रहती हैं। सूत्रों की मानें तो यहां पुर्नवास बस्तियों की कई महिलाएं भी इन कोठों पर आकर जिस्मफरोशी करती हैं और शाम को घर वापस लौट जाती हैं। ये अपने घरों में यही कहकर आती हैं कि वे नौकरी करने जा रही हैं।
वेश्यावृति में लिप्त लड़कियों की तादाद चाहे जितनी भी हो लेकिन यह एक नंगा सच है कि इन वेश्याओं में 90 प्रतिशत अनपड़ हैं। यू.एन. की रिर्पोट के मुताबिक हर साल 25,000 मासूम बच्चियां और लड़कियां इस धंधे में जबरन धकेल दी जाती हैं या फिर मजबूरी में वे स्वयं ही इस जिल्लत भरी जिंदगी को अपना लेती हैं। कई रैकेट ऐसे भी हैं जो दूरदराज के राज्यों में किन्हीं गरीब परिवार की लड़कियों को अपने प्रेमजाल में फांस कर या शादी करके चकलाघरों तक लाते हैं और उन्हें दलालों के हाथ बेच देते हैं जहां इन लड़कियों को निकल भागने की कोई सूरत दिखाई नहीं देती। गरीबी से तंग आई या अपने कथित प्रेमी की धोखेबाजी की शिकार लड़कियों के साथ कोठों पर जो बर्ताव होता है वो भी उन्हें अंदर से तोड़ देता है।
सैक्स वर्करों के लिए काम करने वाले संगठनों का दावा है कि जिस्मफरोशी की दलदल में फंसी इन लड़कियों को ग्राहकों से मिलने वाले 100 रूपयों में से मात्र 20 रूपये ही मिल पाते हैं जबकि बाकी का पैसा कोठा मालकिनों, पुलिस, दलालों, भड़वों, राश्नवालों, डाक्टर व साहूकारों में ही बंट जाता है। एक सर्वे के मुताबिक आधी सेक्स वर्कस को एच.आई.वी. और एड्स पीड़ित पाया गया है जो अपने साथ ग्राहकों को भी ये बीमारियां बांटने के वजह बनती हैं। धन की कमी के कारण ये वेश्या न तो अपनी चिकित्सकीय जांच करवा पाती हैं और न ही अपने बच्चों को स्कूल भेजने में समर्थ हैं।
यहां असल कमाई कोठा मालकिनों और पुलिस की होती है। 1980 के दशक में दिल्ली के जीबी रोड़ पर माया का नाम बड़ा मशहूर था। वह कोठा नंबर 50 की मालकिन थी। और इन्हीं मज़लूम वेश्याओं की कमाई से वह इतनी अमीर बन गई कि भारी भरकम टैक्स भी अदा करती थी। राजेन्द्र नगर में उसकी अपनी कोठी थी। उसके तीन बच्चे जर्मनी और लंदन में पढ़ते थे। अब वह जीवित नहीं है लेकिन यहां अन्य कोठा मालकिनों के बच्चे देहरादून व दिल्ली के मशहूर पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं जबकि इन मालकिनों के कोठों में किराये पर रहने वाली सेक्स वर्कर के बच्चे अपनी तालीम से वंचित रह जाते हैं या वो भी अपनी मां-बहनों की दलाली करते नजर आते हैं।
वैसे कोठों पर जिल्लत और गुलामी से बदतर जिंदगी जीने वाली इन वेश्याओं का जीवन आजादी से पहले इतना बुरा नहीं था। पहले एक तवायफ और वेश्या में फर्क समझा जाता था। तवायफ किसी विशेष अवसर पर समारोहों में अमीरों की महफिलें या फिर कोठों पर नाचने गाने का काम करती थीं और इनकी जिंदगी भी कमोबेश वेश्याओं से कहीं ज्यादा बेहतर होती थी। जब लाहौर की हीरा मंडी और दिल्ली के चावडी बाजार की तवायफें नाच-गानों के लिए दूर-दूर तक बुलाई जाती थीं और उनका मुजरा देखने वाले अपनी सुधबुध खो बैठते थे। पर आजादी के बाद तो न वैसे मुजरे रहे और न ही मुजरेवालियां। वे भी थकहार कर वेश्यावृति के धंधे में आ गई।
आज स्थिति ये है कि यदि पंचतारा होटलों में जिस्मफरोशी करने वाली कॉलगर्ल्स और विदेशों से आने वाली उन हाई फाई सेक्स वर्कर्स को छोड़ भी दिया जाये, जो अपनी एक-एक रात की कीमत हजारों और लाखों रूपये में वसूलती हैं तो बाकी वेश्याओं का जीवन ढलती उम्र तक पैस-पैसे को मोहताज ही रहता है। ऐसे में जो वेश्याएं शराफत की जिंदगी जीना चाहती हैं, उन्हें समाज स्वीकार नहीं करता। यह आश्चर्यजनक है कि एड्स को रोकने के लिए चलाये गए अभियान में वेश्यावृति उन्मूलन का कहीं जिक्र तक नहीं आता।
दुख की बात यह है कि आजादी के बाद केंद्र व राज्य की सरकारों ने वेश्याओं तथा इनके बच्चों के लिए कोई कारगर कदम भी नहीं उठाये हैं। हालांकि वेश्यावृत्ति की रोकथाम के लिए बनें कानूनों एस.आई.टी.ए. और पी.आई.टी.ए. के प्रावधानों के बारें में भी ये वेश्याएं कोई जानकारी नहीं रखतीं। इन अधिनियमों में कई संशोधन भी किए गए हैं तथा उन व्यक्तियों को सख्त सजा देने के प्रस्ताव भी प्रस्तुत किये गए हैं जो इस व्यवसाय में संलिप्त हैं, तो भी यह धंधा बदस्तूर जारी है।
अभी कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह सुझाव भी दिया था कि जब सुरक्षा एजेंसियां बच्चों की तस्करी पर जब तक रोक नहीं लगा पा रहीं तो क्यों न वेश्यावृत्ति के धंधे को कानूनी जामा पहना दिया जाए? वेश्यावृत्ति को वैध बनाये जाने की इस दलील ने अब एक व्यापक बहस का रूप ले लिया है, जिसमें वेश्याओं को लगता है कि उनका धंधा वैध हो जाने से उन्हें कोठा मालकिनों के शोषण से मुक्ति मिलेगी और उनकी स्याह जिंदगी रोशन हो सकेगी। लेकिन वेश्यावृत्ति को वैध बनाये जाने के विरोधियों का तर्क है कि इससे समाज, संस्कृति और नैतिकता पर बुरा असर पड़ेगा। यदि यह धंधा वैध हो गया तो इससे ज्यादा युवतियां जुड़ेंगी और असली फायदा फाइव स्टार होटलों व दलालों को ही होगा। कानूनी दर्जा मिल जाने से आपराधिक माफियाओं की भी बढ़ोत्तरी होगी।
वर्ष 1984 से वेश्याओं तथा उनके बच्चों की भलाई के लिए काम कर रही 'भारतीय पतिता उद्धार सभा' के अध्यक्ष खैराती लाल भोला का कहना है कि 'इस धंधे में आने वाली औरतों को कोई दूसरा धंधा आसानी से नही मिलता। यहां तक कि नैतिकता की ऊंची-ऊंची बातें करने वाले भी किसी सैक्स वर्कर को अपने यहां काम नहीं देते। अभी तक किसी के पास यह आधिकारिक रिकार्ड भी नहीं है कि देश में कितनी वेश्याएं हैं? वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता मिलने के बाद कम से कम उन्हें मेडिकल सुविधाएं तो मिल सकेंगी। मैं वेश्याओं को कानूनी मंजूरी की मुखालफत करने वालों से यह पूछना चाहता हूं कि एक वेश्या के पेट से जन्में बच्चों को दूसरे बच्चों की भांति जीने का हक क्या नही है? हमने वेश्याओं के पुर्नवास और उनके बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए नौ राज्यों में अपने कार्यालय स्थापित किये हैं और वे अपना काम ठीक ढंग से कर रहे हैं। विश्व के 175 देशों में वेश्यावृत्ति को वैधानिक मान्यता प्राप्त है लेकिन भारत में अभी भी इस समस्या पर असंमजस बरकरार है।'
वैसे तो वेश्यावृत्ति पर नियंत्रण करने व समाज से इसके दुष्परिणामों से बचाने के प्रयास भी कई एन.जी.ओ कर रही हैं। लेकिन फिर भी यह धंधा आज कोठों से निकलकर पांच सितारा होटल की संस्कृती तक पहुंच चुका है। भारतीय दंड विधान में महिलाओं और युवतियों के अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम 1956 के अनुसार कोई भी स्त्री जो धन या वस्तु के बदले अनुचित यौन संबंधों के लिए अपना शरीर अपर्ण करती है वह 'वेश्या' कहलाती है। ऐसे में देह व्यापार को रोकने के लिए जो अनैतिक गतिविधियां निरोधक कानून (संशोधन) विधेयक 2001 पेश हुआ था उसमें चकलाघरों, सैक्स वर्करों के पास जाने वाले लोगों को जेल में बंद करने के अलावा 50 हजार रूपये के जुर्माने का प्रावधान है लेकिन तब यह कह कर इसकी आलोचना की थी कि जहां तक कानून का सवाल है, महज इसे लागू कर देने से देह व्यापार बंद नहीं हो सकता। देह व्यापार तो किसी न किसी रूप में मानवीय आवश्यकता के संदर्भ में सदैव हर समाज में विद्यमान रहा है। यछपि यह एक अनिवार्य बुराई है तो भी उसे जबरदस्ती खत्म किए जाने के प्रयासों के स्थान पर इसे वैध बनाने के ही तर्क दिये जाते हैं।
एक आंकलन के अनुसार लगभग साढ़े 7 करोड़ पुरूष, वेश्याओं के पास जाकर संबंध कायम करते हैं तो कानून ऐसे कितने लोगों को पकड़ पायेगा? मुंबई की बार बालाओं पर प्रतिबंध के चलते बार बालाएं देश के अन्य शहरों में फैल गई। स्वीडन में प्रतिबंध के बावजूद देह व्यापार रोकने में सफलता नहीं मिली। अतः हमारे देश में वेश्यावृत्ति वैध हो या नहीं यह सवाल अभी तक एक बहस तलब मुद्दा ही है।
यह ठीक है कि ज्यादातर मुस्लिम देशों में वेश्यावृत्ति गैर कानूनी है। लेकिन कई पश्चिमी देशों में विशेषतौर पर यूरोप में इसे कानूनी मान्यता प्राप्त है। कई देश तो अपने रड लाइट एरिया को टूरिस्ट के लिए आर्कषण के रूप में पेश करते हैं और कहते हैं कि वेश्याएं तो समाज की सेफ्टी वॉल्व हैं। यदि यह न हों तो हर गली-मुहल्ले में छेड़छाड़ और रेप के मामले ऐसे दिखाई दें, जैसे वासनाओं के विस्फोट हो रहे हों। वैसे भी प्रिंस चार्ल्स से लेकर बिल गेट्स तक कई लोग वेश्यावृत्ति को वैध बनाये जाने के हक में हैं। कुछ देशों में यह धंधा वैध है और वहां टैक्स भी लिया जाता है लेकिन इसके लिए विशेष क्षेत्रों को ही सीमित किया गया है, जहां प्रवेश पर कोई रोकटोक नहीं है। वैसे भी पश्चिमी देशों में जो खुलापन है वह भारत में नही है। हमारे यहां इम्मोरल ट्रैफिकिंग एक्ट 1956 के मुताबिक कोई भी महिला एकांत में अपने शरीर का कमर्शियल इस्तेमाल कर सकती है लेकिन न तो वह सार्वजनिक स्थानों पर अपने ग्राहकों को आर्कषित कर सकती है और न ही अपने धंधे को बढ़ाने के लिए लोगों में प्रचार कर सकती है। यही नियम हांगकांग, कजाकिस्तान, फ्रांस, डेनमार्क, पौलेंड, पुर्तगाल, स्पेन, इटली आदि देशों में भी लागू है। ऐसे में भारत सरकार वेश्यावृत्ति को वैध बनायेगी या नहीं यह तो वही जाने लेकिन भारत के अधिकांश लोगों का यही मत है कि जो वेश्याएं इस धंधे को किन्हीं कारणों से नहीं छोड पातीं उन्हें अपराधी के तौर पर ट्रीट नहीं किया जाना चाहिए बल्कि सजा उन लोगों को मिलनी चाहिए जो बहला-फुसला कर या खरीद-फरोख्त करके लाई गई औरतों के लिए जिस्म फरोशी का बाजार तैयार करते हैं। सिर्फ वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाना ही इस समस्या का हल नही है। समाजिक जागरूकता से ही इस समस्या पर नियंत्रण पाया जा सकता है।
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