कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
जगदीश चावला, वरिष्ठ पत्रकार
अपने गुरु श्री हरिवंश राय बच्चन की लिखी एक कविता 'कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती' को पढ़ते ही मेरी आंखों में ऐसे कई लोगों के अक्स झिलमिलाने लगे जो अपनी कोशिशों और मेहनत की बदौलत ही शून्य से शिखर तक पहुंच पाए हैं।
वैसे तो हर व्यक्ति अपने जीवन में सफलता पाने की हर संभव कोशिशें करता है, लेकिन अधिकांश लोगों की यह इच्छा इसलिए पूरी नहीं होती क्योंकि वे इसके लिए अपेक्षित मेहनत और संघर्ष नहीं करते। कभी स्कूली दिनों में मैंने भी 'किंग ब्रूस एंड स्पाइडर' की कहानी पढ़ी थी, युद्ध में पराजित होकर राजा ब्रूस ने जब दीवार पर जाला बुनती एक मकड़ी को बार-बार गिरते और अंततः अपने मकसद में कामयाब होते देखा, तो ब्रूस पर उसकी इन कोशिशों का ऐसा असर पड़ा कि पडा कि उसने फिर से युद्ध करने की ठानी और वह अपने शत्रु को हराकर जीत गया। सामान्यतः सभी क्षेत्रों के सफल पुरुष अपनी असफलता को भी सफलता की सीढ़ी मानते हैं और कहते हैं कि 'शर्म ठोकर खाकर गिर जाने में नहीं, बल्कि गिर कर न उठने में है। इस दृष्टि से आज हम जितने भी आविष्कारों का लाभ उठा रहे हैं, वे सब किसी न किसी की कोशिशों और मेहनत का ही नतीजा है। यदि इलियस हैब ने कपड़े सीने की मशीन न बनाई होती तो अभी तक महिलाएं अपने हाथ से ही कपड़े सी रही होतीं। यदि अलैक्जेंडर ग्राहम बेल ने मेहनत न की होती तो हम टेलीफून का लाभ नहीं उठा पाते थॉमस एल्वा एडीसन ने यदि बिजली का बल्ब बनाने में अपनी बुद्धि और मेहनत का इस्तेमाल नहीं किया होता तो बहुतेरे घर रोशनी द्वारा जगमगाने से भी महरूम रह गए होते। ऐसे वैज्ञानिकों की सफलता पर जितना भी नाज़ किया जाए वह कम है।
प्रायः देखा गया है कि जो लोग अपने सपनों को साकार करने में सफल रहे हैं, उनका बचपन गरीबी में बीता और उनकी शिक्षा भी अधूरी ही रही। लेकिन मेहनत और आत्मविश्वास के जज्बे ने उन्हें वहीं पर पहुंचाया जो उनका लक्ष्य था। रिटेल व्यवसाय के शहंशाह कहे जाने वाले फ्रैंक वूलवर्थ बचपन में इतने गरीब थे कि उनके पास पहनने को कपड़े व जूते तक नहीं होते थे। उन्होंने न्यूमार्क के एक स्टोर में बिना तनख्वाह के काम भी किया। उन्हें 15 घंटे काम करने पर भी ज्यादा पैसे नहीं मिलते थे। लेकिन उन्होंने अपनी हिम्मत होती तो हम नहीं हारी और कहीं से 300 डालर एडीसन उधार लेकर लैंकास्टर में एक ऐसा स्टोर खोला, जहां हर सामान अपेक्षाकृत दूसरे स्टोरों से कम कीमत पर मिलता था। धीरे-धीरे उनका व्यवसाय इतना बढ़ गया कि अमेरिका व अन्य शहरों में उनके एक हज़ार से ज्यादा स्टोर खुल गए और अपनी मृत्यु के समय वे अकूत संपत्ति के मालिक थे। इसी तरह आज जिस जिलेट कम्पनी का कारोबार दो सौ से ज्यादा शहरों में फैल चुका है, उसके संस्थापक किंग सी. जिलेट भी कभी मामूली सेल्समैन थे। उन्होंने अपना व्यवसाय भी किया, लेकिन उससे वे लगभग दिवालिया हो गए। सितम्बर 2019 देहरादून बाद में एक भौंथेरे उस्तरे से अपनी शेव बनाते समय जब उन्हें परेशानियां हुईं तो उनके मन में ब्लेड बनाने का विचार आया। उन्होंने कहीं से कर्ज़ पर पैसे का जुगाड़ करके ब्लेड बनाने की मशीन खरीदी। शुरू शुरू में उनके बनाए ब्लेड खरीदने में किसी ने कोई रुचि नहीं दिखलाई और वे एक साल में सिर्फ चार दर्जन के करीब ही ब्लेड बेच पाए। पर उन्हें अपने ऊपर भरोसा था। बाद में जब उन्होंने अपने ब्लेड बेचने की कारगर नीति अपनाई, तो अब पूरी दुनिया में उन्हीं के ब्लेडों की धाक जमीं दिखलाई देती है। ऐसी शानदार सफलताओं पर जॉन डी रॉकफैलर का यह कथन ज्यादा सटीक लगता है कि-"अगर आप सफल होना चाहते हैं तो आपको सफलता के घिसे पिटे रास्तों पर चलने के बजाए नए रास्ते बनाने चाहियें।"
इसी श्रृंखला में एक गरीब परिवार में जन्मीं स्वाति की सफलता भी उसके अतीत की गवाह है जिसने बताया कि, “मेरे पिता कभी नर्सरी से पौधे लाकर ठेले पर बेचते थे। लेकिन पिता की मौत के कुछ दिन बाद जब मैंने वह ठेला अपने हाथों में संभाला तो मुझे ऐसा नहीं लगा कि एक लड़की के लिए यह काम समाज में अशोभनीय है। मेरी पढाई भी ठीक से नहीं हई। लेकिन मेरे दिमाग में अपने काम को बढ़ाने की लगन थी। तभी मेरे मामा ने एक छोटा प्लाट खरीदकर उसमें मेरे लिए एक नर्सरी खुलवा दी। मैंने खूब मेहनत की। मैंने अपनी इस नर्सरी के साथ साथ एक जूस की दुकान भी खोल ली और शादियों के लिए बुके बनाने का काम भी शुरू कर दिया। पिता जी की तेरह साल पहले हुई मौत के बाद आज मैं बी.ए. तृतीय वर्ष में पढ़ भी रही हूं और अपना कारोबार भी चला रही हैं। जब किसी गरीब लड़की की शादी होती है तो मैं अपनी ओर से एक 'बुके' उसे अपनी दुआ समेत देती हूं। ठेले से यहां तक सफर मुझे अंदर से शाबाशी तो देता है, लेकिन अपने पिता की याद में मेरी आंखें नम हो जाती हैं।"
मेहनती लोगों के लिए कोई भी काम छोटा या बडा नहीं होता। काम शरू करने से पहले अपनी पूंजी, व्यवस्था और लक्ष्य को सुनिश्चित करके जो लोग आगे बढ़ते हैं उन्हें भी बीच बीच में इस बात का जायजा लेते रहना चाहिये कि क्या उनकी कोशिश का परिणाम सही दिशा में जा रहा है या नहीं? इसकी निष्पक्ष समीक्षा करने से ही यह जाना जा सकता है कि आपके चलते काम में कहीं कोई 'कमी' तो नहीं रह गई।
मैंने अक्सर कई लोगों के मुंह से यह भी सुना है कि ज्यादा उम्र हो जाने की वजह से वे अब कोई नया काम खोलने की हिम्मत नहीं कर पाते। लेकिन ऐसे लोगों को भी यह समझना चाहिये कि सफलता का उम्र से कोई संबंध नहीं होता। केन्टुकी फ्राइड चिकन की फ्रेंचाइजी खोलने वाले हरलेन सैन्डर्स ने 60 साल की उम्र में अपना बिजनेस शुरू किया था। वे काफी गरीब थे और उनका जीवन निराशा व असफलताओं से भरा हुआ था। जब उन्होंने यह व्यवसाय शुरू किया तो उनके पास सिर्फ 87 डॉलर थे। लेकिन आज दुनिया कभी रेस्तरां में बर्तन धोने वाले उस सैन्डर्स को करोड़पति के रूप में जानती है । इसी तरह प्रसिद्ध उद्योगपत्ति घनश्याम दास बिडला भी पांचवीं कक्षा से आगे नहीं पढ़े। लेकिन अपनी कोशिशों और मेहनत से उन्होंने भी एक सफल उद्योगपति बनने का सपना पूरा कर दिखलाया। उनकी मृत्यु के समय उनके बिड़ला-ग्रुप में दो सौ कम्पनियां थीं जिनके पास 2500 करोड़ की संपत्ति थी। द्वितीय विश्व युद्ध में दिवालिया हो चुके होंडा मोटर्स के संस्थापक सोइशिरो हौंडा की फैक्ट्री अमेरिकी बमबारी में तबाह हो गई थी लेकिन उन्होंने भी हार नहीं मानी। उन्होंने फिर से जब अपनी फैक्ट्री खोली तो उनके पास स्पेयर पार्ट्स खरीदने तक के पैसे नहीं थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने बेचकर स्पेयर पार्टस खरीदे और आज उनकी अथक कोशिशों के कारण ही होंडा कम्पनी दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कम्पनियों में गिनी जाती है। भारत-पाक बंटवारे में पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए एम.डी.एच. मसालों के शहंशाह महाशय धर्मपाल गुलाटी कभी कुतुब रोड पर तांगे में सवारियां ढोया करते थे। वे ज्यादा पढ़-लिख भी नहीं पाए। लेकिन आज उनकी मेहनत, ईमानदारी और मृदुल व्यवहार के कारण उनके मसालों के कारोबार का कोई सानी तक नहीं है।
हिन्दस्तान लीवर लिमिटेड जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी से टक्कर लेने वाले और साबुन की टिकिया के बजाए गृहणियों को डिटर्जेन्ट की राह दिखलाने वाले करसन भाई पटेल ने भी कभी 1000 रुपये की शुरुआती पूंजी से 'निरमा' का उत्पादन शुरू किया था। वे अपना उत्पाद 'माल पसंद न आए तो पैसे वापस' के आधार पर भी बेचते रहे। लेकिन उन्होंने अपनी मेहनत को कभी क्षीण नहीं होने दिया। आज घर-घर में 'निरमा' की पहुंच ही उनकी सफलता की दास्तां बयां करती नज़र आती है। रिलायंस कम्पनी के संस्थापक धीरू भाई अम्बानी पैसे की तंगी के कारण सिर्फ दसवीं तक ही पढ़ पाये और 17 साल की आयु में उन्होंने नौकरी करनी शुरू कर दी थी। वे जिस कम्पनी के पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरने का काम करते थे, उसे देखकर वे प्रायः यही सोचते रहते थे कि कभी मैं भी इतनी ही बड़ी कम्पनी बनाऊंगा। आखिरकार जब उन्होंने अपनी मेहनत, बुद्धि और आत्मविश्वास के बल पर मात्र पन्द्रह हज़ार रुपये की पूंजी से अपनी कम्पनी खोली और उनकी मृत्यु के समय उनके रिलायन्स-ग्रुप की सकल सम्पत्ति 60 हजार करोड़ की थी। बाद में उन्हीं की लीक पर चलते हुए उनके दोनों बेटों-अनिल अम्बानी और मुकेश अम्बानी भी अब देश के सबसे ज्यादा पंजीपति व्यवसायी माने जाते हैं।
इसी तरह फिल्म-जगत में इस सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन भी कभी कोलकाता की सड़कों पर नौकरी ढूंढने में समय गुजारा करते थे। बाद में फिल्मों में आने से पहले उनके चेहरे मोहरे, कद-काठी और आवाज़ को लेकर भी कई सवाल खड़े किए गए। लेकिन उन्होंने भी अपनी ही मेहनत से खुद को फिल्म जगत में स्थापित किया। वर्ष 1995 में जब उन्होंने ए.बी.सी.एल. कम्पनी बनाई तो उन पर 90 करोड़ रुपयों से ज्यादा का कर्ज़ भी हो गया। कर्ज न चुका पाने की वजह से उन पर अदालती मामले भी चलने लगे। लेकिन उसूलों के पक्के अमिताभ ने बाद में अपने विज्ञापनों और 'कौन बनेगा करोड़पति' जैसे रियलटी शो से मिली कमाई से सभी कर्जा देने वालों की पाई-पाई तक चका दी। आज उनके पास काम की कमी नहीं है। लेकिन पैसा कमाने के लिए उन्होंने जो मेहनत की है वह काबिले रश्क है।
कहना गलत न होगा कि इस दुनिया में ऐसे अनेक व्यवसायी, उद्योगपति, लेखक, साहित्यकार, राजनेता, वकील, डॉक्टर, इंजीनियर, फिल्मकार और बिल्डर्स हैं जो अपनी कोशिशों से ही सफलता के कीर्ति-स्तंभ बने हैं। ऐसे लोगों की अनथक मेहनत का विश्लेषण करके कोई भी कामयाबी की मंजिल को पा सकता है। वैसे भी समय की रेत पर निठल्ले बैठकर अपने कदमों के निशान नहीं बनाए जा सकते। ज़िन्दगी में शह और मात तो चलती ही रहती हैं, लेकिन हममें मनोबल की मात नहीं होनी चाहिए। उचित यही कि किसी एक जगह से 'रिजेक्ट' होने को हम अपनी ज़िन्दगी पर हावी न होने दें।
मेरा मानना है कि जिस तरह सोने को आग में तपा कर तथा उसे पीट पीट कर कई तरह के आकार देने से उसकी कीमत कम नहीं होती, उसी तरह मेहनत और अभ्यास से तपे लोगों की ख्याति भी कहीं कम नहीं होती। कभी भी नहीं।।