ऑडिशन (कहानी)


डॉ हरिसुमन बिष्ट, वरिष्ठ साहित्यकार एवं हिंदी अकादमी के पूर्व सचिव द्वारा लिखी कहानी 


'ओ सिट' यकायक उसके मुंह से निकला। लम्बी साँस छोड़ते उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें साफ दिखने लगीं। आसमान होती जिन्दगी की स्क्रिप्ट का काम पूरा हो चुका था। पात्रों के चयन की प्रक्रिया बाकी थी। पिछले तीन दिन से ऑडिशन चल रहा था। जिस गति से समय भाग रहा था-उससे हेमेन्द्र का चिन्तित होना स्वाभाविक भी था।


एक नारी पात्र के चयन का गणित ठीक से नहीं बैठा था, बावजूद इसके कि वहां जितने पार्टिसिपेन्ट थे-- सभी किसी न किसी भूमिका के लिए चुने गये थे--और उनकी भूमिका की कास्टिंग भी हो चुकी थी। पहली दृष्टि में जिसे ऑडिशन में चुना गया-- वह औरत की भूमिका का निर्वाह कर पायेगी-- यह यक्ष प्रश्न था--क्या लड़की उस औरत की भूमिका को कर पायेगी? सकारात्मक उत्तर के बीजतत्व उसमें मौजूद होने के बावजूद औरत और लड़की के बीच मामूली सा अंतर संदेह को गहराता जा रहा था।


हेमेन्द्र का संशय भारी बनता जा रहा था--उस पात्र की भूमिका को वही बखूबी निभा सकती है, जो अनुभव की आँच में पकी हो। अनुभव की सीमा भी एक फ्रेम में जड़ी, जो संपूर्णता को प्राप्त का प्राप्त हो, जो एक औरत होने का अहसास कर सके। यह बात भी किसी के गले नहीं उतर रही थी।


औरत अनुभवी तो हो सकती थी-- परन्तु उसकी संपूर्णता का श्लेष समझ से परे था--अनुभव और संपूर्णता एक दूसरे के पूरक नहीं हो सकते थे--यह ठीक था कि दोनों एक सिक्के के दो पहलू हों किन्तु दोनों एक होने के बावजूद अलग थे-- उनकी दिशाएं अलग थीं।


यह स्क्रिप्ट वास्तविक नहीं-- उस जीवन के करीब जरूर थी-- जिसे मंचित होना था। उसमें औरत की भूमिका अधिक समय तक नहीं थी- एक औरत अधिक अवधि के लिए हो नहीं सकती थी। औरत का अधिक देर तक होना सामान्य जीवन को बोझिल कर सकता था। नाटक को उबाऊ कर सकता था। इसकी धारणा हेमेन्द्र ने स्वयं बना ली थी- जो इस नाटक का निदेशक था। औरत नाटक में जरा देर के लिए ही आयेगी तो भी वह अनगढ़ और बदसूरत होने के बावजूद नाटक की रीढ़ हो सकती थी। बिना औरत के नाटक हो नहीं सकता था।


औरत की भूमिका के लिए हेमेन्द्र चिन्तित है- यह सभी को मालूम था। वह जिस औरत की खोज कर रहा था- वह साधारण थी। उसके साथ साधारण आदमी की भूमिका वह खुद निभाना चाहता था। साधारण आदमी हो अथवा असाधारण, वह नाटक का केन्द्रीय पात्र बनकर उस औरत के करीब रहना चाहता था। यह बात लोगों की समझ में आने लगी थी- खुलकर कोई कहना नहीं चाहता था। दरअसल हेमेन्द्र ने अब तक जितने नाटक मंचित किये- वह हमेशा केन्द्रीय पात्र ही बना रहा- और हमेशा केन्द्रीय पात्र ही बना रहा- और उसकी हमेशा चर्चा बनी रहती थी। इसका श्रेय उस पात्र को देता था जिसके लिए वह ताजा फूलों का एक खूबसूरत गुलदस्ता, चुइंगम, भिनी-भिनी सुगंध वाला सीजनेबल सेंट व एक चॉकलेट के साथ अपना सलाम अपने किसी सहयोगी के माध्यम से भेजता था। यदि लड़की को उसका सलाम स्वीकार हो तो तनिक हरकत में आती और प्रेम का इजहार कर देती। स्वीकार नहीं होता तो वह सलाम लौटा देती। अपनी सफलताओं से उपजी उसकी मान्यतायें, औरत का अनुभव और उसकी संपूर्णता कोई सतही धारणा, कोरी कल्पना या फिर किसी नेता का बयान नहीं हो सकती थी। उसकी इस मान्यता में गंभीरता थी। मंच उसकी एक दुनिया थी। उसने जिसे वर्षों से जिया था- उसे साधा- उसकी गरिमा की वह उसी रूप में स्थापना चाहता था। अब तक जीवन में उसने जितनी भूमिकाएं निर्वाह की उनसे भिन्न उसका उत्स नहीं हो सकता था। इसीलिए यह भूमिका उसके लिए टेढ़ी खीर प्रतीत हो रही थी- वह उस आदमी को मन भर कर जीना चाहता था, लेकिन आम औरत की जिन्दगी...।


अब तक मंचित नाटकों में उसने हमेशा अमीरी का खेल खेला। उन्हीं का स्वांग रचा था। उन खेलों में समिधा भी साथ रही, यह भी एक सकारात्मक पक्ष था। समिधा को नाटक पसंद था, किन्तु जीवन में नाटक करना अच्छा नहीं लगता था। उसने नाटकों में नारी की भूमिका के साथ-साथ हेमेन्द्र के वास्तविक जीवन में भी प्रवेश कर लिया था। नाटकों में दोनों का अभिनय देखते बनता था- दर्शक पति-पत्नी के नाटक को वास्तविकता के अधिक करीब पाते थे। 


दरअसल सच्चाई कोसों दूर छूट गयी। परिस्थितियां एकदम बदल रहीं थीं, जीवन बदल रहा था- रंग रोगन से पुते मंच पर महानगरीय जीवन की छायाएं साफ-साफ दिख रही थीं। वह जीवन जितना सरल-सहज भाव में प्रदर्शित होता था वास्तविकता में वैसा था नहींपर्दे के पीछे भी कुछ था- जो भावसंधि पर खड़ा था। मंच पर हमेशा समिधा दिखती थी। नाटक होता, तालियाँ बजतीं। मगर आज... समिधा नहीं हैवह 'शकुन्तला' का प्रदर्शन करने नार्वे गयी हुई थी। वह उस दिन लौटेगी जिस दिन आसमान होती ज़िन्दगी का पहला शो होगा।


शो की तारीख को बदलने की कवायत की भी जाये- जो अब संभव नहीं था। यह भी संभव नहीं कि आसमान होती जिन्दगी के बदले कोई पुराना/नाटक मचित कर दिया जाए। भूमण्डलीयकरण के इस दौर में हर आम आदमी का किरदार निभाना आवश्यक था। महँगाई, भुखमरी, गरीबी, कर्ज में डूबकर मर रहे जीवन को प्रमुखता से लेना था। आम औरत घरेलू हिंसा की शिकार और सेक्सवर्कर की जिन्दगी जी रही थी उसका प्रदर्शन भी नाटक में होना उतना ही महत्वपूर्ण था जितना अकाल में अपने को जीवित रखे रखना जैसा। यह नाटक हेमेन्द्र के भविष्य की दिशा तथा दशा के फलित ज्योतिष का फलाफल हो सकता था, ऐसे में वह ऐसा कोई निर्णय नहीं लेना चाहता था- जिससे उसके भविष्य की बाट रूक जाय, और उसे आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ेयदि गुमनामी का जीवन जीना पड़े तो भी वह दूसरा विकल्प नहीं हो सकता था।


पात्र की खोज का सिलसिला चल रहा था, हर बार वही टेक्स, वही गलतियाँ, वही क्षमा याचना और वही सब कुछ। बार-बार जहाज से उड़े पंछी का लौट-लौट कर आने जैसाएकदम भावशांति। अन्ततः हेमेन्द्र ने निर्णय लिया कि उसे समिधा को वापस बुला ही लेना चाहिए।


उसने राहत की साँस ली। कोई भी कारण हो सकता है समिधा के लौटने का। ऐसा वह कई बार लौट चुकी थी- हर बार उसे ही अग्नि कुण्ड में भस्म होना पड़ा था। हर बार उसने नाटक में सफल अभिनय किया और जीत का श्रेय हेमेन्द्र को मिला थायह अन्तिम बाण हो सकता था उसको विश्वास था कि हर बार की तरह न नूकर करने के बाद भी निश्चित ही समिधा एक बार फिर लौट आयेगी।


उसकी आँखों में नींद लौट आयी सुबह दरवाजा न खटखटाया होता तो - न बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो पाते और न नाटक की रिहर्सल हो पाती। उसने दरवाजा खोला तो सामने गीता खड़ी थी- बोली, 'आज तो भौत देर कर दी सैप उठने में। आध घण्टे से मैं दरवाजा खटखटा रही।' 'तुम्हें बीसियों दफा समझाया-कॉल बेल बजाया करो, यह तो अचानक कान खुले- वरना सोया ही रहता-और बच्चे... ।'


'उन्हें भी तो...'


'बेड टी लेगा सैप.... ।''बच्चों के लिए नाश्ता भी तो... ' 'हाँ, मैं कर लूँगी।' 'पहले चाय-'


दरवाजा खोलने के बाद गीता ने जितनी तेजी से भीतर कदम बढ़ाए उससे कहीं अधिक फुर्ती से चाय का कप हेमेन्द्र को थमा दिया। ड्राइंग रूम की चेयर पर उसने चाय का पहला सिप भरा। आँखे लटकती वॉल क्लॉक पर चली गयीं। उसने बेडरूम में सो रहे बच्चों को आवाज दी। वह स्वयं से बुदबुदाया- 'समिधा यहां होती तो- एक दिन औरत घर पर न हो तो मुसीबत–'।


'मैं जगाती हूं सैप! – आप चाय पीयो।'


'ठीक-!' कहकर हेमेन्द्र ने चाय का सिप लिया और छत से लटकते सिलिंग फैन को देखता रहा। 'गीता, इस घर में कब से काम कर रही हो?' 'आपकी शादी से पहले...'


'मैं साल पूछ रहा हूँ।' उसने जरा भारी एवं सख्त आवाज में कहा, 'पंखा कब से साफ नहीं किया।'


गीता चुप रही। शायद उसने हेमेन्द्र को जवाब देना उचित नहीं समझा। वह कह सकती थी-'जब से बच्चे पैदा हुए तब से - घर का खाना बनाना तो- वह जैसे भूल ही गयी है। उसे तो बस इतना ही पता है- समिधा बच्चों को कब और कैसे जगाती है।'


दोनों बच्चों की नींद खुल गयी। हेमेन्द्र ने चाय का आखिरी सिप नहीं लिया था- गीता नाश्ता तैयार करने लगी। चाय का जूठा कप माँजने की प्रतिक्षा उसने नहीं की। कुछ-कुछ बेरूखेपन में बोली, 'आप चाय नहीं पीते हो सैप- एकदम पानी माफिक, आपके झूठे कप के खातिर सारा काम लेट हो रही है।'


'तुम भी समिधा के बोल बोलने लगी हो गीता- वह भी सुबह-सुबह ऐसी ही किचकिच- ओह गॉड-' गीता ने आगे कुछ नहीं कहा। उसके हाथ सिंक पर रखे बर्तनों पर चलने लगेउसे याद आया- हर सुबह समिधा और हेमेन्द्र की दिन की शुरूआत इसी तरह की किचकिच से होती थी। वह चाहती कि हेमेन्द्र फटाफट चाय सुडक ले और बच्चों को स्कूल भेजने की तैयारी में हाथ बँटाएमगर हेमेन्द्र को वह सब अच्छा नहीं लगता था। वह साफ-साफ कह देता- 'बच्चे अब छोटे नहीं हैं- समझदार हैं। उन्हें खुद तैयार होने दो।'



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रात ढले पर लौटते तो बच्चे उन्हें स्टडी टेबल पर ऊँघते मिलते। उन्हें देखकर उनका सुबह से भन्नाया मन शांत होने लगता। किन्तु, ऐसी नोक-झोंक उनमें संबंधों में कड़वाहट घोलने के एकदम करीब तक ले जाती थी। जब कभी हेमेन्द्र ऊँची आवाज में, कुछ कहता तो समिधा टोकती हुई कहती, 'सि ई ई बच्चे पढ़ रहे हैं जरा धीरे बोलो।'


बच्चे स्कूल के लिए तैयार हो गए। बेटे को झटके से फ्रिज खोलते हेमेन्द्र ने देख लिया। बेमन से खुले फ्रिज और उसे बंद करने के अन्दाज को उसने भाँप लिया। उसे समझने में देर नहीं लगी।


फिर बेटी को फ्रिज खोलते देखा वही ब्रेड बरगर उठाया- सूंघा और नेपकिन में रैप कर अपने टिफन बॉक्स में रखने लगी। उसके चेहरे पर भी बरगर के प्रति अनमने भाव साफ-साफ दिख रहे थे। मुँह बिचकाकर उसका स्कूल जाना- उसे अच्छा नहीं लगा। उसने दूर से ही पूछा, 'क्या हुआ बेटी?'


'कुछ नहीं डैड!' 'झूठ! कुछ तो है' 'डैड! जब मॉम गयी थीं उस दिन...' 'फ्रिज में रखी चीजे खराब नहीं होती बेटे-' 'ओह गॉड स्मेल...' 'यह तुम्हारा वहम है बेटे! आज रख ले जाओ! कल.... '


'क्यों परेशान होता है सैप- ये बासी कु-बासी मत दो बच्चा लोगों को' गीता ने कहा। 'तुमने क्या बनाया गीता,' हेमेन्द्र ने पूछा।


'परांठा, जैसा भी बना है सैप- ये अच्छा है।' 'ये खाने में तो अच्छे लगते है परन्तु...


'कैसी बात करते हो सैप- इसे खाने से कोई आदमी, बच्चा बीमार नहीं होता- आँख, कान, पेट खराब नहीं होता, जो जैसा खाएगा वैसा ही होगा- मोटा अनाज खाएगा तो मोटा ही होगा- एकदम तन्दरूस्त!'


'ओह गीता, मैं कह रहा हूँ न तुम्हें इसे बच्चे नहीं खायेंगे।'


'नहीं सैप, मूली का पराठा, अजवाइन, कालीमिर्च, अदरक, सब कुछ रख कर बनाई है- ये नुकसान नहीं करेंगी- एकदम ताजा'


'मूली के पराठे!' संयुक्त स्वर गूंज उठा बच्चों का। उनके चेहरे खिल उठे- एक तरह की तृप्ति चेहरे पर साफ झलकने लगी। 'हम यही पराठे ही लेंगे डैड! रोज-रोज बरगर, सेन्डविच ....ओह गॉड।'


गीता का चेहरा गुलाब-सा खिला उठा- एकदम अपनी संपूर्णता के साथ। उसने नाश्ता पैक किया और टेबल पर रख दिया। उसे बड़ी संतुष्टि हुई। उसे लगा स्वयं पराठे खा रही हो- उनकी मिठास का पानी मुँह में छलछला आया। वह बच्चों को पुचकारती, बोली, 'एक-एक पराठा चख लो! अच्छा लगेगा, अच्छे बच्चे कभी भी खाली पेट स्कूल नहीं जाती।'


ऐसा कौन कह रहा है। दोनों बच्चों को आश्चर्य हुआ और हेमेन्द्र को भी। न कभी समिधा ने ऐसा कहा और न उसने ही- दोनों बच्चों के हाथ गीता की तरफ बढ़ गए। हेमेन्द्र को कुछ भी नही सूझा। वह कुछ समझ भी नहीं पाया। आश्चर्य से उन्हें देखता रहा। 'बाय-बाय आंटी।'


गीता कुछ नहीं बोल सकी– गोया वह बोलना ही भूल चुकी हो- उसके होंठ हिलते नहीं थे। मन में आया हाथ उठाकर कहे- 'बाय-बाय बेटा' किंतु वह बच्चों को अपने वजन से ज्यादा भारी बैग उठाते देखती रही- बड़ी मुश्किल से बच्चों ने बैग उठाया तो गीता से रहा नहीं गया- बोली, 'गाडी का टैम हो गया सैप! मैं छोड़ आयेगी.. '


'नहीं, नहीं, खुद ही चले जाएंगे। बच्चों को अपना बोझ ढोने की आदत डालनी चाहिए।'


'नहीं सैप, नहीं।' गीता के आड़े पितृसत्ता आने पर भी बोली। उसने हेमेन्द्र के चेहरे की तरफ गौर से देखा- 'आप और हम लोगों में बड़ा फर्क है। हम इन बच्चों को तरस खाती हैं, और आप- वही हजारों हजार वर्ष पुराने मर्द की आदतों से छूट नहीं पायी सैप। आज तो समय बदल गयी है- बच्चा लोग पहले की तरह नहीं पल-बढ़ रहे- इन्हें जितना प्यार मिलेगा उतना ही... रु एक बात पूछू सैप! किस किताब में लिखा है बच्चा लोग बोझ ढोएँ- आप मानों या न मानो सैप। हम लोगों का बच्चा ले जा सकती- फिर भी बच्चों को इतना बोझ नहीं दे सकती।' गीता बच्चों की तरफ बढ़ी और दोनों के बैग उसने लपक लिए।


'बाय-बाय डैड!' कहते बच्चों के हाथ हवा में लहराने लगे।


बाय बेटे भी नहीं निकला हेमेन्द्र के मुँह से।


गीता बोलचाल में अटपटी जबान की जितनी फिट थी उतनी ही कुशल दर्जिन भी। छोटी सी बात की बखिया मारकर हेमेन्द्र के होंठ बंद कर दिए थे। अब वह चाहे तो मुस्करा कर ही अपनी मन की बात कह दे। पर वह खुलकर हँस नहीं सकता था।


'बच्चा- यदि बच्चा उन्हें नहीं मानेगी तो- आपके तो सैप- बच्चा तो बड़ी समझदार है, कभी कुछ नहीं कहती।' गीता बच्चों को गाड़ी में बैठाकर लौट आयी- 'मैं भी किन बातों में उलझ रही सैप! काम तो मेरा सारा यूँ ही पड़ा है- जूठे बर्तनों से सिंक भरी है- बू-बास मार रहा है। फिर आपके लिए नाश्ता...।' सिंक में आड़े-तिरछे रखे जूठे बर्तनों पर गीता पुनः टूट पड़ी।


हेमेन्द्र उसके मशीन होते हाथों को देखता रहा। घिस-घिस का स्वर बर्तनों की खड़कन और तेजी से बहते नल का स्वर गोया उनके कानों में रस-सा घोलने लगा। कैसी अजीब आवाज है यह- हर बर्तन कुछ कह रहा था। पुराने पड़े संबंधों को गुनगुनाने जैसा- क्या ज़रूरत? उसने गौर से देखा- गीता बड़ी तन्मयता से बर्तन छालने पर जुटी हुई थी। कठिन जीवन के बीच जरा भी नीरसता नहीं। उसने गीता के चेहरे को पढ़ना चाहा जिसका कि वह भाविक था- जिसे उसने बहुत पहले सीख लिया था। एक सफल नाटक निर्देशक बनने से पहले- उसकी भावशबलता, को लेकर हमेशा चर्चा रहती थी सांकेतिक भाषा की विशेषज्ञता उसने कालीदास से ली थी- ऐसा उसका मानना था- किंतु उसके सहयोगी चाँद पर सितारे जड़ते हुए कहते- 'आज कालीदास होते तो विद्योत्मा से हुए सांकेतिक संवाद के कमजोर पक्ष का पाठ हेमेन्द्र से सीखते।'


यकायक उसकी सोच के दायरे में समिधा आ गई। उसने भी 'शंकुतला' नाटक का पहला पाठ उसी से सीखा था- जिसके बीसियों शो करने के बाद अभिनय के लिए वह नार्वे गयी हुई थी। उसकी सफलता पर उसे राष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने का सिलसिला चल पड़ा था। नार्वे से वह कोई बड़ा पुरस्कार झपट लेगी, यह सुनिश्चित था। इस पर हेमेन्द्र को जरा भी खुशी नहीं हो रही थी। उसके लिए समिधा का भाव अपने ही तराजू के पलड़े पर अपना वजन ही भारी प्रतीत हो रहा था- उसने स्वयं से कहा, 'तुम लौट आओ समिधा! वर्तमान की समस्याओं और संकटों का परिचय और समाधान पाने के लिए अतीत की रचना का सहारा लेना- तुम्हारी अन्तर्विवशता है, लेकिन समकालीन जीवन के यथार्थ को आसमान होती जिन्दगी का रू-ब-रू करना मेरा उद्देश्य है- जिसे मैं सहजता से प्रदर्शित करूँगा, जिसमें आम आदमी अपनी जिज्ञासाओं का प्रतिबिम्ब देख सकता है।'


उसने यह सोचकर गोया अपनी सफलता की कुंजी प्राप्त कर ली थीउसने गीता की तरफ देखा, वह कुछ बड़बड़ाती जा रही थी।


हेमेन्द्र ने क्षणभर को साँस रोककर सुनने का प्रयास किया। उसी चियर पर बबूल के काँटे उग आये आह-ओह की कराह के साथ होंठों से निकला- यदि नाक का फल आयोजन न हो सकता तो- पराजय ही होगी- जीवन भर किये गये नाटकों में भी पराजय- क्या सोचेंगे लोग- यही कि समिधा के बगैर उसका यह तप- यह साधना सफल नहीं हो सकती। क्या आसमान होती जिन्दगी में भी समिधा का होना जरूरी है? क्या उसकी ठौर पर कोई और...?


हेमेन्द्र के चेहरे पर तनाव साफ दिखने लगा- ईर्ष्या, द्वेष का मिला जुला लेप से अटा पड़ा चेहरा। शिकन की गहराइयाँ बढ़ती जा रही थीं। गीता का उसकी तरफ देखने से झेंप -सी हुई। उसने स्वयं अपने विचलित मन को शांत करने के लिए कहा- 'समिधा, तुम सोचती हो कि मुझसे जीत जाओगी।' उसने क्रूर हँसी का ठहाका लगाया।


गीता चौंकी। उसकी समझ में भी कुछ नहीं आया। उसने स्वयं को संबोधित करते हुए कहा, 'मुझको बच्चों से नहीं उलझना चाहिए था। यदि ऐसा नहीं करती तो काम से फारिग होकर घर पहुँच चुकी होती।'


गीता ने दो-तीन बार ड्राइंग रूप की वॉल क्लॉक को देखा- वह समय का अनुमान ठीक से नहीं लगा सकीउसने सिर्फ इतना भर जाना खिड़की से छिटकी धूप का टुकड़ा फर्श को जला रहा है- उसे घर लौटने का समय बता रहा है


'नाश्ता तैयार है सैप- कर लेना।' गीता ने किचन से आवाज दी।


हेमेन्द्र ने सुना भी या नहीं, कहीं वह ऑडिशन का जमा घटा लगाता ही रहा तो– परंतु ऐसा गीता का सोचना भर रहा- हेमेन्द्र ने उससे धीरे से पूछा- 'तुमने बोलना कहाँ से सीखा गीता! पहले तो कभी सुना नहीं।'


'आप से ही तो सीखा सैप!' उसकी हँसी फिसल गयी। मैं जा रही हूं सैप! बहुत देर हो गयी। 'कहाँ?' 'घर, और कहाँ।' 'कौन-कौन है वहाँ?' 'मेरे को बहुत देर हो रही है सैप! वहाँ आदमी है, बच्चा है।' 'आदमी क्या करता है?' 'क्या नहीं करेगा–सैप ऐसा पूछो न। वह सब कुछ करेगी- हाट बाजार, धन दौलत, देश-परदेस, नेताई उठाई गिरी- सब कुछ करेगी। और कुछ नहीं भी तो- रिक्शा ही खींच सकती है।' 'और बच्चा!'


'वह तो अभी छोटी है, बच्चा है कुछ न कुछ हाथ – पाँव चलाना वह सीख ही लेगी। वैसे सैप एक बात समझ नहीं आती। आदमी कितना कमाती है, यह किसी को पता नहीं, औरत कमाने लगी तो एक सुर में गाने लगते हैं पास पड़ोस के, कोई मर्द औरत के कमाने को उसका धर्म नही समझती, मर्द के धर्म ने औरत को जब चाहा तब नंगा ही किया है।'


'फिर भी, तुम्हारा आदमी कितना कमाई कर लेता है?' हेमेन्द्र ने पूछा। 'सुबह-शाम का चूल्हा...' 'बच्चा स्कूल जाता है?' 'ईस्कूल जायेगी तो खायेगी क्या! आज तक टंकी पर रहती है- पानी के पैसे नहीं देती इसलिए। सैप, एक ही काम हो सकेगा ऐसे में...।' 'काम करोगी?' 'कहाँ सैप?' 'नाटक में!' 'इस ज़िन्दगी में कम नाटक हैं सैप? क्या कुछ नहीं करती मैं।' उसने यकायक सिर झटककर कहा। 'इसके भी रूपये दूंगा।' 'कितने?' 'जितना यहाँ घर पर मिलता है।' 'बस- नाटक में भी इतना ही?' 'हाँ, नाटक तो नाटक ही है- उसमें असल थोड़े होता है, इसका असल जिन्दगी में कोई काम नहीं होता।' 'हाथ-पाँव तो चलेगी ही सैप! हमने तुम्हारा नाटक देखी है। पर वैसा कपड़ा नहीं पहनेगी।' 'क्यों?' 'हमको वो वाला कपड़ा अच्छी नहीं लगती- नंगे पाँव, टूटी चप्पल, मैली कुचैली धोती- उस पर पैबंध बसयह सब अच्छी लगती है।'


'ऐसा क्यों?'


'वो इसलिए सैप सभी काम करने वाली ऐसा ही पहनती हैं। वो कोई देवी-देवता या भूत-परी तो है नहींहां, जिस दिन हमारा आदमी...' जोर से हँसती हुई कहती है, 'जिस दिन देवता बन जायेगी उस दिन मैं सब कुछ....।'


'यदि पहन लिया तो?' 'वो नाराज हो जाएगी सैप


'वो नाराज हो जाएगी सैप। वो सोचेगी मैं उसके लायक नहीं हूँ- फिर तो वह रिक्शा न चला के पागल ही हो जाएगी। भौत चाहती है मेरे को।' तुम काम तो करोगी?'


'तुम काम तो करोगी?' 'कौन सा काम सैप?'


'कौन सा काम सैप?'


'हाँ, वही सब जिसे तुम हाथ-पाँव हिलाकर करती हो घर में।'


'इस काम में नाश्ता बनाना नहीं था, सैप। वो तो... ।'


'वह तो बच्चा समझकर किया। यही न?'


'हाँ, सैप!'


'और क्या-क्या कर सकती हो?'


'वो सब करेगी जो आप करने को कहेगी। मगर एक बात कहती सैप, पहले उस काम के लायक बनाओगी तभी वह काम करेगी और उसका रूपया अलग से दोगी न सैप?'


'कितना?'


'जितना वाजिब समझो। मैं घर की नौकरानी हूँ–पुरानी नौकरानी बनिया नहीं हूँ जो एक-एक पैसे का हिसाब रखे– एक बात साफ-साफ सुन लो, सैप! इतना भी कम न लूँगी कि लोग भी पूछेगी तो बताने में शर्म आए। कोई न कहेगी मालिक ने इतना ही दिया।'


हेमेन्द्र की बाछे खिल उठीं। अपने विश्वास को दृढ़ता देने को पुनः गीता से कहा, 'तुम्हारा सैप इतना रूपया देगा- तुम दूसरी दफा भी पूछोगी काम के लिए। बस समझो तुम्हारा पेट भर गया और बच्चे का भी।'


'मेरे को आपका काम करने में कोई शर्म नहीं आती, सैप! मेरे को ही क्यों दुनिया की किसी भी औरत को नहीं आती- वो तो मर्द का धर्म है। जितना काम करूँगी उतना ही रूपया मिलेगी, सैफ! यहाँ, जहाँ चाहे वहाँ। काम तो काम है।'


हेमेन्द्र को खटका सा हुआ, कुछ सोचने की मुद्रा में वह चुप रहा। गोया ठीक-ठीक अभिनय करने वाली औरत को उसने पा लिया हो। गीता से उपयुक्त पात्र कोई दूसरा नहीं हो सकता था- उसने स्वयं से कहा, 'क्या वह गीता का ऑडिशन था!!'


'क्या सोच रहे हैं, सैप? गलत कहा तो मेरे को डाँट दो। मगर आप लोग हो न सैप जो काम का पूरा पैसा नहीं देतीगरीब का पैसा भी... सैप लोग हो न बड़ा आदमी इसीलिए।''


'हाँ, गीता यही सब तो है जीवन का सच, आम आदमी के जीवन का सचइसे ही तो मैं- इन सबको तुमसे बेहतर कोई दूसरा नहीं व्यक्त कर सकता। समिधा भी नहीं। वह तुम्हारी अदाकारी देखेगी तो ईर्ष्या से जल उठेगी, कहेगी यही सब गीता से करवाना था तो शकुन्तला की भूमिका को मुझे विदेश क्यों भेजा।'


'गलत सोच रहे हो सैप! वह भला क्यों जलेगी- एक औरत कभी नहीं जलती। वह तो औरत है, शकुन्तला है, सीता है, द्रौपदी है।'


'वह जरूर जलेगी, पूछेगी- हेमेन्द्रऔर क्या करवाने की योजना है गीता से। इसकी ठौर पर कोई दूसरी औरत नहीं मिली?


'तो आप क्या कहेंगी?' गीता ने तपाक से प्रश्न किया।


'हाँ, पात्र मुझे दूसरा मिल सकता था- परन्तु मैं चाहता था आम औरत की बात आम औरत के शब्दों में कहलवा सकूँ, नाटक का एक-एक संवाद आम औरत की समझ में आ सके। मैं यह भी जानता हूँ गीता भी ये संवाद तब तक ठीक-ठीक बोल सकेगी जब तक उसे नाटक के शब्दों का अर्थ ठीक-ठीक समझ में नहीं आयेगा। जिस दिन वह आदमी के शब्दों का अर्थ समझने लगेगी उसी दिन अपने काम की कसकर मजदूरी माँगेगी। मैं उसकी मजदूरी दे नहीं सकूँगा।'


गीता बीच में टोककर बोली, 'इतने सालों से काम कर रही है गीता अब इतनी नासमझ नहीं है। सब कुछ समझती है। आप ही बताओ सैपउस दिन उसकी मजदूरी क्या दोगी-' 'वही जो माँगोगी।'


'झूठ, वह नहीं दोगी आप। समिधा को दिया कभी आपने? यदि उसका मजदूरी देती तो उसे विदेश से वापस बुलाने की बात नहीं कहती। उसका मजदूरी तो उसका इनाम ही तो है।'


'तुम्हें कैसे मालूम यह सब!' हेमेन्द्र ने सकपकाते हुए पूछा।


'आप ही तो कह रही थी सैप। तब मैं किचन में थी।'


'ओह गीता! मैं तो यू ही... ।' कहते हेमेन्द्र खिसिया गयाउसने अपने को सभालने का प्रयास किया। जोर का ठहाका गूंज उठा घर में।


'गीता को कभी माँगने की जरूरत नहीं होगी सैप।' कहती हुई वह गम्भीर हो गयी।


हेमेन्द्र की हँसी का ठहाका फिसलता ही गया।


आश्चर्य से गीता उसे देखती रही. मन हुआ- एक बार सैप से पूछ ले कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो झमाझम बर्फ गिरती ही जा रही है, आसमान ऊँचा और ऊँचा होता ही जा रहा हैआसमान के भीतर से बर्फ के फाहे गिरते ही जा रहे हैं। कहीं आसमान के तले पर कोई छेद तो नहीं हो गया, क्या हुआ सैप को- इतना जोर का ठहाका, समिधा मैम के न होने पर पगला तो नहीं गये सैप।'


गीता ने चोर नजर से हेमेन्द्र को देखा- उसके चेहरे पर प्रसन्नता के भाव देखकर वह बोली, 'मैं जा रही हूँ- सैप। नाटक करने जरूर आएगी।' हेमेन्द्र की हँसी रूक नहीं रही थी। गीता को अंदर बाहर बर्फ ही बर्फ गिरती दिख रही थी। चारों तरफ फैली सफेद चारद-सी। जिसका एक कोना हेमेन्द्र ने थाम लिया था और दूसरा कोना- जिस तरह एक पुरूष औरत को देखता है और एक औरत पुरूष को देखती है ठीक-ठीक वैसा ही देख रहा था।