एक जादुई व्यक्तित्व - दारासिंह
फोटो : intoday.in
जय श्री राम ये वो शब्द हैं जो आज भी लोगों को दारा सिंह की याद दिलाते हैं। दारा सिंह ने रामानंद सागर द्वारा निर्मित रामायण में हनुमान की भूमिका निभाई उनसे बेहतर शायद ही कोई इस किरदार में ढल पाता। दर्शकों ने उन्हें इस किरदार में बहुत ही पसंद किया कि आज भी हमारे जेहन में वे इसी किरदार के रूप में उपस्थित हैं।
दारा सिंह इतने चमत्कारी व्यक्तित्व के थे की हर कोई उनका कायल था। उनके पंजाबी लहजे में बोले गए संवाद मन को छू जाने वाले थे। दारा सिंह ने अपने जीवन की शुरूआत पहलवानी और कुश्ती से की थी। कुश्ती में भी खूब शोहरत पाई और देश का नाम ऊंचा किया।
19 नवंबर 1928 को पंजाब के अमृतसर जिले के धरमूचक गांव में जन्मे दारा सिंह रंधावा को बचपन से कसरत का शौक था। अखाड़े में जाकर वे दण्ड पेलते थे और कहा जाता है कि वे 100 बादाम, दूध-मक्खन के साथ रोज खाते थे। कुश्ती की ओर दारा सिंह का स्वाभाविक रुझान था और भाइयों के साथ मिलकर उन्होंने पहलवानों को हराने का सिलसिला शुरू किया। दंगलों में जाकर उन्होंने कई पहलवानों की चित किया और उनके नाम का डंका बजने लगा।
किंग-कांग, जॉर्ज जॉरडिएको, जॉन डिसिल्वा, माजिद अकरा, शेन अली जैसे महारथियों को दारा सिंह ने जब धूल चटा दी तो उनके नाम का डंका चारों ओर बजने लगा। इस रियल हीरो के दरवाजे पर सिल्वर स्क्रीन पर हीरो बनने के प्रस्ताव जब लगातार दस्तक देने लगे तो वे अपने आपको नहीं रोक पाए और अखाड़े से चकाचौंध रोशनी की दुनिया में आ गए।
गांव से निकल कर वे शहर पहुंचे और फिर देश से बाहर जाकर उन्होंने कई नामी-गिरामी पहलवानों को पराजित किया। 1968 में फ्रीस्टाइल कुश्ती के वे विश्व चौम्पियन बने और 1983 में उन्होंने कुश्ती से संन्यास लिया।
रूस्तमें हिंद का खिताब पाने वाले दारा सिंह सच में एक सुपर हीरो थे। दिल और दिमाग दोनों से ही वे ताकतवर थे, उन्होंने हमेशा सेहत को प्राथमिकता पहले दी, लोग आज भी उनके डायलॉग 'संडे हो या मंडे, रोज खाओ अंडे' को याद करते हैं। वह पहले इंसान थे, जिन्होंने अखाड़े से लेकर अभिनय, राजनीति, लेखन आदि में हाथ आजमाया और खूब नाम भी कमाया, हर क्षेत्र में सफल रहे वो भी अच्छी और चारित्रिक पहचान के साथ।
83 वर्ष के दारा सिंह रंधावा ने मुम्बई के जुहू स्थित अपने घर में अंतिम सांस ली, दिल के दौरे के बाद वो कोकिला बेन अस्पताल में पांच दिन तक रहे और बाद में अपने घर आ गए थे। हर क्षेत्र में बुलंदियां छूने वाले दारा सिंह ने 500 कुश्तियां लड़ी पर किसी भी कुश्ती में नहीं हारे, उन्होंने 116 फिल्मों में काम किया, फिल्मी दुनिया में अलग मुकाम हासिल किया, कई फिल्में भी बनाई, निर्देशन में भी हाथ आजमाये और 1998 में राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त किया। राजनेता के रूप में भाजपा की ओर से राज्यसभा के सदस्य भी बने। उन्होंने 1989 में पंजाबी भाषा में 'मेरी आत्मकथा' लिखी जिसमें कुछ विवादस्पद पहलू भी नज़र आए। लेखक के रूप में कई फिल्मों की स्क्रिप्ट भी लिखी। वह एक समाज सेवक भी थे, पंजाबी फिल्मों के लिए उन्होंने एक स्टूडियो का निर्माण भी करवाया था। यह तो सभी जानते हैं कि वह पहलवान थे, वह आम इंसान के दिल में मौजूद भोलेपन और सरलता को आकर्षित करते रहे क्योंकि वे असाधारण थे। कई लोग उन्हें सच का हीरो समझते थे, ऐसा इंसान जो सच्चाई पर चले, अन्याय से लड़ने की हिम्मत रखे, सादेपन से भरपूर हो और इतनी उपलब्धियों के बाद भी ज़मीन से जुड़ा रहे। यह सभी बातें दारा सिंह में निहित थी। वह असाधरण व्यक्तित्व के धनी थे।
17 वर्ष की उम्र में बाप बने दारासिंह के तीन बेटे और तीन बेटियों का भरा-पूरा परिवार है। उनके बेटे विंदु दारा सिंह को उन्होंने हीरो के रूप में लांच किया था, लेकिन विंदु फिल्मी दुनिया में नहीं चल पाए। फिलहाल विंदु फिल्मों में छोटे रोल निभाते हैं और टीवी शो बिग बॉस के चौम्पियन रह चुके हैं। दारा सिंह ने राजनीति में भी कदम रखा और वे 2003 से 2009 तक राज्य सभा सांसद रहे।
एक छोटे से गांव से निकल कर दारासिंह ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया। वे अक्सर अपने बेटों से कहते थे कि तुम यदि मेरे नाम को आगे नहीं बढ़ा सकते हो तो कोई बात नहीं पर ध्यान रखना कि इस पर कोई आंच न आए। स्वास्थ्य को पहले पायदान पर रखने वाले दारा सिंह ने जीवन की उच्चता को हमेशा प्राथमिकता दी, एक समय यह भी कहा जाता था कि मुम्बई में जिसकी पास छत नहीं या खाने को नहीं वो दारा सिंह के घर निसंकोच जा सकता था, वहां उसे रहने-खाने को मिलता था। दारा सिंह अपने आप में एक किंवदती थे, आज भी कोई अपनी ताकत दिखाता है तो सब उसे बोलते हैं दारा सिंह बन रहा है क्या? यह था उस महान इंसान का प्रभावशाली व्यक्तित्व। सच, हमें दारा सिंह जैसे व्यक्तित्व की जरूरत है। दादा सिंह हमेशा एक किंवदती थे और बने रहेंगे।