बग्वाल- पत्थर युद्ध देखा है आपने
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प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के त्यौहार के दिन उत्तराखंड में माँ बाराही के मंदिर (देवीधुरा चंपावत) में बग्वाल यानि कि पाषाण (पत्थर) युद्ध देखने को मिलता हैं। आज के आधुनिक और वैज्ञानिक युग में होने वाला विश्व प्रसिद्ध पत्थर युद्ध जो अपने दर्शकों को दांतों तले अंगुली दबाने को विवश कर देता है, का आयोजन कब से और क्यों किया गया, इस संबंध में आदिकालीन मानव लिखने की कला से अनभिज्ञ होने के कारण कोई लिखित दस्तावेज उपलब्ध नहीं है किन्तु प्रचलित व विदित किंवदंती के अनुसार लोग जितनी खुशी से अब इस बग्वाल का इंतजार करते हैं, आदिकाल में यह दिन उससे कई गुना अधिक दुख व शोक का होता था क्योंकि पहले इस मंदिर में रक्षाबंधन के दिन मानव जाति के किसी एक प्राणी की बलि चढ़ाई जाती थी। बलि का ग्रास कौन बनेगा, इसकी सूचना मंदिर के एकमात्र पुजारी को मां बाराही द्वारा सपने में दी जाती थी। पहले मंदिर का पुजारी यदि किसी कार्यवश किसी दूसरे के घर जाता था तो पुजारी को आते देखकर परिवार के सभी सदस्य खामोश हो जाते थे क्योंकि सभी को बलि का न्यौता आने का खौफ मन में रहता था, पुजारी अपने कार्य का विवरण देने या अन्य कार्य हेतु सहायता की मांग करता था तो कहीं जाकर परिवारजनों के मुंह की रौनक पुनः लौटती थी।
अगले वर्ष दुनिया से किसकी विदाई होगी, कौन बलि का ग्रास बनेगा? यही सोचते रहते थे सम्पूर्ण इलाके के लोग। एक वर्ष रक्षाबंधन के दिन एक ऐसे व्यक्ति की बारी आ गई जो अपनी माँ की इकलौती जीवित संतान थी। उसकी मां को यह मालूम हुआ तो वह रोती बिलखती माँ बाराही के दरबार में पहुंची और चिल्लाकर कहने लगी- हे माँ तूने मेरे वंश के अन्य सदस्यों का नाश किया है। अब मेरे वंश को जीवित रखने तथा आगे बढ़ाने के लिए मेरा इकलौता बेटा बचा है। क्या उसे भी मेरी गोद से छीन लेगी। इसी तरह उसने अपने पुत्र को बख्शने की गुहार माँ से की। उसकी करुण पुकार को सुनकर व प्रसन्न होकर अदृस्य रूप में प्रकट होकर माँ ने उसे बग्वाल का आदेश दिया। मां बाराही ने कहा- मै तुझ एक उपाय बता रही हूँ, इसी वर्ष से उसका प्रयोग करना होगा, अन्यथा...। माँ ने कहा-व्यक्तियों के अलग-अलग दो दल होंगे। एक दल के लोग दूसरे दल के लोगों पर तथा दूसरे दल के लोग पहले दल के लोगों पर पत्थर फेंकेंगे। और हाँ, वे सभी मानव जो बग्वाल में शामिल होंगे, अपने साथ अधिक पत्थर न ले जाये। बग्वाल शुरू होते ही अधिक पत्थर मैं स्वयं भेजूंगी और बग्वाल विराम होते ही उन पत्थरों को वापस भी ले लूंगी।
बग्वाल में शामिल होने के लिए सप्ताह भर पहले से पूर्ण शाकाहारी भोजन करना होगा तथा ब्रह्मचर्य जीवन का पालन करना होगा, जो इन नियमों का पालन नहीं करेगा उसे पत्थरों से चोट लगेगी और खून बहेगा। इस प्रकार मेरे प्रांगण में एक व्यक्ति के खून के बराबर खून गिर जायेगा। माँ बोली- उस दिन मैं वर्षा भी कराऊँगी। वर्षा के माने तू समझ लेना कि बग्वाल शुरू करने का यही ठीक समय है। इतना कहकर अदृश्य आवाज थम गई। इसके उपरांत स्त्री खुशी-खुशी वहाँ से लौटे। उसने देखा कि रास्ते में कुछ नीचे कई लोग उसका इंतजार कर रहे हैं। सभी खामोश थे, उन्हें यह भय था कि उसके पुत्र की बारी निरस्त होकर कहीं किसी दूसरे की बारी तो नहीं आ गई। जब स्त्री ने उन्हें मां द्वारा बताई गई सम्पूर्ण बातें बताई तो वे सभी खुशी से झूम उठे।
चंद दिनों में सभी लोग इस खबर से परिचित हुए और बग्वाल में शामिल होने के लिए तैयारियों व नियमों का पालन करने लगे। तब से प्रतिवर्ष माँ बाराही मंदिर में बवाल होती है। बग्वाल खेलने वाले लोगों में से कुछ लोग विपक्ष द्वारा फेंके जाने वाले पत्थरों से अपनी सुरक्षा करने हेतु अपने साथ बांस नामक वृक्ष की लकड़ी से निर्मित अथवा निगाल नाम की लकड़ी से निर्मित फर्रा (बहुत बड़ी ढाल) भी रखते हैं। यूं तो फर्राधारक रणबांकुर अपना झुण्ड बनाकर आकार में वृहद अपने-अपने फरों को अपने झुण्ड के ऊपर व चारों ओर खड़ा करते हैं, वे फर्राधारक लोग अपने अपने फरों को आपस में इस तरह संलग्न किया करते हैं मानो मिश्र के पिरामिड की दीवार बनानी हो मगर उपयुक्त मौका पाते ही विपक्ष पर भारी पत्थरों की बरसात करने में भी बिल्कुल नहीं चूकते है। उल्लेखनीय है कि उतना कुछ करने के बाद भी कुछ फर्राधारक रणबांकरों को विपक्ष द्वारा फेंके गये पत्थरों की चोट सहनी ही पड़ती है, ऐसा होना शुभ भी है।
मंदिर के पुजारी को जब इस बात की दिव्यानुभूति होती है कि मंदिर प्रांगण पर अब एक व्यक्ति खून बराबर खून बह चुका है तो वह शंख एवं घंटीयों की विशेष ध्वनियों और पत्थर युद्ध हो रहे प्रांगण पर स्वयं भी जाकर युद्ध विराम करने का संकेत देता है। इसके पश्चात शनैः शनैः आधुनिक युग के अद्भुत आश्चर्य को आगामी वर्ष के रक्षाबंधन के त्यौहार के दिन के पहले दिन तक के लिए विराम मिलता है।
आश्चर्य तो इस बात का है कि प्रतिवर्ष पत्थर युद्ध को विराम मिलते ही मंदिर प्रांगण से समस्त पत्थर स्वतः ही गायब हो जाते हैं। यद्यपि वर्तमान में बाराही धाम देवीपुरा के अलावा और कहीं भी पत्थर युद्ध नहीं होता है लेकिन कुमाऊँ के इतिहासानुसार आदिकाल में चौदा, सीलिंग एवं द्वाराहाट इत्यादि स्थानों में बग्वाल होता था।
देवीधुरा में जो विशालकाय शिलाखण्ड है, इनके बारे में कुमाऊं के इतिहासकार व कुर्माचल केसरी स्व० श्री बदरी दत्त पाण्डेय जी ने अपने शोध ग्रंथ 'कुमाऊँ का इतिहास' के पृष्ठ 161 में लिखा है कि पांडवों की यादगारे यहाँ बहुत हैं, देवीधुरा में कई बड़े-बड़े पत्थर हैं, जो पांडवों के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्होंने ये पत्थर खेल में नीचे फेंके थे, भीमसेन की पाँचों अंगुलियों के चिन्ह भी उनमें बताये जाते हैं, संभव है, किसी समय में पांडवों का राज्य कूमाचल (उत्तरांचल) में रहा हो।
प्रतिवर्ष बग्वाल देखने देश-विदेश के लोगों समेत कुल लाखों लोग यहां आते हैं। देवीधुरा, टनकपुर, काठगोदाम व लालकुआं रेलवे स्टेशन से पहाड़ी मार्गों व दृश्यों का लुत्फ उठाते हुए बसों व जीपों द्वारा यहाँ पहुंचा जा सकता है।