मधुशाला की खुमारी में जीवन को तबाह न करें


सुनयना एक संभ्रात परिवार की महिला है। 3 दिल्ली में रहकर वह शराब को छूती तक नहीं थी। लेकिन अपने पति के साथ पांच साल तक विदेश में रहने के बाद जब वह वापस दिल्ली आई तो उसे शराब पीने की ऐसी लत लग चुकी थी कि जिसके लिए बाकायदा अब उसके घर में रखी विदेशी शराब की बोतलें एक 'मिनी बार' होने का अहसास दिलाती है मैने ऐसे कई लोगों को देखा है जो शराब पीने के आदी नहीं होते। लेकिन वे भी अपने यार-दोस्तों की सोहबत में रहकर, अपने घरेलू हालात से परेशान होकर, किसी सोशल गैदरिंग में शामिल होने पर अथवा न्यू ईयर सेलिब्रेट करने के जोश में जब विस्की या बीयर के पूंट पीना शुरू करते हैं तो उन्हें यह पता ही नहीं लगता कि उनके पीने की लत कब उनके लिए ज़हर बन गई? ऐसे लोगों को सुबह से लेकर शाम तक शराब ही शराब नज़र आती है। 


शराब की लत यानी अल्कोहलिज्म के शिकार लोगों को जब तक शराब न मिले, तब तक वे इसके लिए बेचैन रहते हैं और अपनी तलब के लिए तरह तरह की बहानेबाज़ी से लेकर वे झूठी कसमें खाने तक में भी परहेज नहीं करते। ऐसे अल्कोहलिक या शराबी व्यक्ति जहां समाज में अपनी बनीं बनाई इमेज और प्रतिष्ठा का बंटाधार करते हैं, वहीं पर शराब से लगी मानसिक और शारीरिक बीमारियां भी मृत्यु तक उनका पीछा नहीं छोड़तीं । विशेषज्ञों का कहना है कि शराब में इस्तेमाल होने वाला इथाइल अल्कोहल इंसान के खून में आसानी से घुल जाता है और इसका असर शरीर के तमाम अंगों पर पड़ता है। लम्बे समय तक शराब पीने से लिवर सिरोसिस हो सकता है जो मुश्किल से छूटने वाली बीमारी है। अल्कोहल के सेवन से जहां व्यक्ति में घबराहट, बेचैनी, गुस्सा और चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है, वहीं पर शरीर में पीड़ा, ऐंठन व सिरदर्द के साथ साथ यादाश्त का कमजोर पड़ जाना भी इसके लक्ष्य हैं। लिवर में सूजन तथा पेट और तंत्रिका तंत्र से जुड़ी बीमारियां भी शराब की वजह से ही होती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो शराब आदमी को जहां शारीरिक और मानसिक तौर पर बीमार और निकम्मा बना देती है वहीं पर इसे अपराधों और दुर्घटनाओं का जिम्मेदार भी माना गया है।


इसे एक विडम्बना ही कहना होगा कि देश में प्रतिवर्ष हज़ारों जिंदगियां लील जाने वाली शराब की खपत अब हर साल 22 फीसदी की दर से बढ़ रही है और भारत दुनिया भर में विस्की का ऐसा बड़ा बाजार बन गया है जहां गरीबी रेखा के आसपास दो तिहाई लोगों के रहने के बावजूद भी यहां हर साल 7 करोड़, 20 लाख की विस्की के केस और 25 करोड़ बीयर के केस बिकते हैं, जबकि हर केस में एक दर्जन बोतलें होती हैं। यह आंकलन कुछ वर्ष पहले भारत के उद्योग और वाणिज्य संगठन ऐसाचैम ने किया था।


मोटे तौर पर शराब तीन तरह की होती है। पहली बीयर, जो अनाज को फरमेंट करके बनाई जाती है। दूसरी वाइन, जिसे फलों को फरमेंट करके बनाते हैं और तीसरी स्पिरिट, जो डिस्टीलेशन से बनाई जाती है। इसमें अल्कोहल सबसे ज्यादा होता है। आपको यह जानकर हैरत होगी कि वाइन की सबसे महंगी बोतल जिसे पिया जा सकता है, वह मोंट्राचे है, जो कभी 12.56 लाख में बिकी थी। इसी तरह 64 साल पुरानी मैकलन की एक बोतल भी पिछले साल चैरिटी के लिए 2.41 लाख रुपये में बिकी थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यदि शराब उम्दा क्वालिटी की हो तो उससे अपना गला तर करने वाले कीमत की परवाह नहीं करते। इस वक्त महंगी शराब के सबसे ज्यादा खरीदार अमेरीका, चीन और जापान में हैं जबकि भारत भी इसका अपवाद नहीं रहा। सरकार द्वारा इंपोर्टेड शराब पर लगी अडिशनल कस्टम ड्यूटी को हटाने के अब इम्पोर्टेड शराबों में जानी वाकर और ब्लैक लेबल जैसे ब्रांड और स्कॉच भारत में रईसज़ादों की पार्टियों में पानी की तरह बहती नजर आती हैं।


कुछ समय पहले दिल्ली के पड़ौस में हांगकांग बनने जा रहे शहर गुड़गांव में 'बार' के 24 घंटे खुले रहने की खबर सुनकर तो अभिजात्य वर्ग को ऐसा लगा था मानों इसी से उनका लाइफ स्टाइल ही सुधर जाएगा। मुम्बई का सम्पन्न वर्ग मानता है कि शराब पीना उसके लिए एक सामाजिक अनिर्वायता है। यहां बार बालाओं को हटाये जाने के बावजूद भी शराब की होम डिलिवरी कोई अजूबा नहीं लगती। इसी तरह शराब के कई शौकीन जब गोवा भ्रमण के लिए जाते हैं तो लौटते समय वे वहां से काजू से बनी शराब-'फैनी' की कुछ बोतलें अपने साथ ले आते हैं जो वहां की दुकानों पर सस्ते में मिलती हैं । राजधानी दिल्ली में तो शराब की खपत इतनी बढ़ चुकी है कि जहां दस साल पहले देसी और अंग्रेजी शराब की 100 दुकानें हुआ करती थीं, वहां अब उन दुकानों में सरकारी दुकानों की संख्या 423 और प्राइवेट दुकानों की संख्या 90 हो गई है। यहां 10 मॉल्स ऐसे हैं जहां शराब बिकती है। सूत्रों के मुताबिक दिल्ली में नवम्बर 2011 तक 3.87 लाख विस्की की बोतलें 3.46 लाख वाइन की बोतलें और 10.8 लाख बीयर की बोतलें बिकीं। इसी तरह नोएडा में शराब की 2 करोड़ बोतलें बिक गईं और लगभग यही हाल गुड़गांव का भी रहा। जहां से सरकार ने भरपूर राजस्व इक्ट्ठा किया। इससे पता चलता है कि शराब एक तरह से उसी रूटीन का हिस्सा बन गई है जो हर वीकेंड पर फार्महाउसों से लेकर होटलों में तथा पब से लेकर घरों तक में एक सामाजिक रस्म के जैसी नजर आती है।


इसमें कोई दो राय नहीं है कि पीने वालों को पीने का बहाना चाहिये । हमारे यहां ऐसे शराबियों की कमी नहीं है जो कहते हैं कि सर्दी में शराब पीने से खांसी नहीं होती। इससे कब्ज दूर होती है और हाजमा ठीक रहता है। वोदका ज्यादा बदबू नहीं करती इसलिए यह महिलाओं की प्रिय डिंक है। वैसे ये हमारे सोशल स्टेट्स की प्रतीक भी है। ये सारी बातें सच नहीं बल्कि मिथक हैं। हालांकि सभी धार्मिक ग्रंथ और पीर–पैगम्बर भी शराब को मतिभ्रम करने वाला पेय मानते हैं, लेकिन इसकी काट के लिए भी आज के कई शराबी जो तर्क देते हैं कि वे भी एक तरह से अकाट्य ही लगते हैं। जैसे कि शराब तो सोमरस है, ऐसा वेदों और शास्त्रों में लिखा है।अगर देवता लोगों को इसके सेवन से कुछ नहीं हुआ तो हम भी दो-चार पैग लगाने से मर नहीं जायेंगे। फिर हम शराब अपने पैसे की पीते हैं, किसी से मांग कर तो नहीं पीते । और अब तो कई प्रयोगशालाओं के शोध भी बताते हैं कि एक निश्चित मात्रा में नियमित शराब पीने से दिल का दौरा नहीं पड़ता और न ही कैंसर होता है। ऐसे में इन मूढ़ शराबियों को कौन समझाए कि लगातार शराब पीने से आदमी अपनी भरी जवानी में ही मर जाता है और जब वह ज्यादा पीकर बकझक करता है तो वह उसी समय सबके सामने नंगा भी हो जाता है। अभी हाल ही में कुछ टी.वी. चैनलों पर यह दिखलाया गया कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी द्वारा शराब पीने से मना किये जाने पर पहले पत्नी की हत्या कर दी और बाद में वह उसकी लाश के पास बैठकर सारी रात शराब पीता रहा। ऐसी स्थितियां तभी बनती हैं जब आदमी शराब के बिना रह नहीं सकता और वह ऐसे संगीन अपराधों को अन्जाम देता है।


शराब का एक पहलू यह भी है कि राज्य सरकारें गरीबों के लिए देसी शराब के ठेके बहुत ही ऊंची कीमतों पर नीलाम करती हैं जिसमें प्रायः शराब माफिया के वारे न्यारे हो जाते हैं। इन ठेकों पर बिकने वाली शराब में मिलावट की शिकायतें भी मिलती हैं। इसके अलावा तस्करी से लाई गई शराब की सबसे अधिक खपत अवैध कालोनियों, पुर्नवास बस्तियों और मध्यवर्गीय इलाकों में होती है। यह अपेक्षाक्रित सस्ती होती है, इसीलिए लोग इसका ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। देश में जहरीली शराब से मौतों का सिलसिला भी बढ़ता नज़र आता है। अभी पिछले साल मार्च में गाजियाबाद में जहरीली शराब पीने से 25 लोगों की जानें गई थीं। उससे पहले अहमदाबाद में 136 लोग मरे थे और ताज़ा घटना क्रम में पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में करीब सवा सौ लोगों की मौत हो गईं और इतने ही लोग गंभीर अवस्था में अस्पताल भी पहुंचाए गए। ऐसी मौतें प्रायः हुच नाम की अवैध शराब से होती हैं जो देसी तरीके से बनाई जाती है और यह दस-पन्द्रह रुपये तक में मिल जाती है। गरीब तबके के लोगों में इसकी लोकप्रियता ज्यादा है। खासकर दिहाड़ी मजदूर और रिक्शा चालक ही इसके खरीदार होते हैं। हुच में नशा बढ़ाने के लिए इसके निर्माता इसमें मिथाइल अल्कोहल मिला देते हैं, जिससे पीने वालों को उल्टियां होती हैं और कई बार मौतें भी हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में सरकारी सर्तकता नकली और नक्कारा ही साबित होती है। सरकारी स्तर पर शराब के खिलाफ जो अभियान चलाए जाते हैं वे सिर्फ विज्ञापनबाजी तक ही सीमित रहते हैं और उनकी कोई मास अपील नहीं होती।


आजादी के बाद शुरुआती दिनों में भारत सरकार शराब की बिक्री को प्रोत्साहित नहीं करती थी और कई राज्यों में पूरी नशाबंदी लागू थी। मगर इसके बाद जब विकास के कामों के लिए पैसा कम पड़ने लगा तो नशाबंदी का बुखार भी उतर गया और अधिकतर राज्यों की सरकारें शराब की बिक्री पर जोर देने में लग गईं। अब हालत ये है कि गुजरात में जहां महात्मा गांधी के प्रति आदर जताने के लिए सनातन नशाबंदी है, तो भी यहां के पियक्कड़ लोग अपनी सीमा से सटे महाराष्ट्र, राजस्थान व मध्यप्रदेश से टुन होकर या लहराते हुए गांधी की धरती में घुसते हैं। वैसे गुजरात सरकार ने जहरीली शराब बनाने और बेचने वालों को मृत्युदंड देने की घोषणा करके एक सराहनीय कार्य किया है।


गौरतलब है कि ज्यादा से ज्यादा राजस्व प्राप्त करने के चक्कर में बाकी सभी राज्य सरकारों ने हर क्षेत्र में शराब की बेहिसाब दुकानें खोलने का मन बना रखा है जिससे जन स्वास्थ्य का मुद्दा उनके लिए शायद बेमानी हो गया है। देश में ऐसे इलाके भी हैं जहां पीने का पानी मिलना दूभर है लेकिन शराब बहुतायत से मिलती है। शराब चाहे रम्म, विस्की, वाइन, बीयर जिन, ब्रांडी किसी भी शक्ल में हो, ये सब कंगाली के ही स्त्रोत हैं। नेताओं का एक वर्ग यह भी समझता है कि चुनावों में शराब का सिक्का चलाकर वह वोट बैंक पक्का कर पाएगा और इस तरह सत्ता उसकी बपौती बनी रहेगी। लेकिन चुनाव आयोग की सख्ती से अब पीने और पिलाने वालों के समीकरण भी पहले जैसे नहीं रहे।


शराब पीना या कोई भी व्यसन करना एक सामाजिक बुराई है और यह बुराई केवल कानून के डंडे से और सार्वजनिक जगहों पर शराब पीने वालों से जुर्माना वसूल करके दूर नहीं की जा सकती। इसके लिए लोगों में जागरूकता होना जरूरी है। हमारे देश में कई जगहों पर महिलाओं ने आंदोलन कर शराब की दुकानों व भट्टियों को बंद भी कराया है जिसे एक अच्छी पहल कहा जा सकता है। अगर सरकारें भी शराब से मिलने वाली भारी भरकम कमाई का मोह त्याग कर मद्यनिषेध के लिए कारगर नीतियां अपनाएं तो कोई वजह नहीं कि ऐसी शराबबंदी से पीने वालों का ग्राफ स्वतः नीचे आ जाएगा।


ऐसे में कई शराबी यह भी पूछते हैं कि आखिर शराब कैसे छोड़ी जाए? तो उसका उत्तर यही है कि शराब छोड़ना भले ही कठिन है। लेकिन यह असंभव नहीं है। इसके लिए किन्हीं दवाओं की नहीं, अपने आत्मविश्वास की ज्यादा जरूरत होती हैमियामी यूनीवर्सिटी के डॉ. राबर्ट कटलर का कहना है कि शराब वही छोड़ पाते हैं जिनके अंदर इसे छोड़ने की लगन हो। अनिच्छा से शराब छोड़ना कभी कारगर सिद्ध नहीं होता। इस संबंध में मुझे मेरे एक दोस्त द्वारा सुनाया गया यह लतीफा भी बहुत कुछ बयां करता है 


"एक व्यक्ति शराब पी पी कर जब बर्बाद हो गया तो उसने यह फैसला कर लिया कि वह आयंदा शराब को हाथ भी नहीं लगाएगा। इसी के साथ वह अपने कमरे में पड़ी सारी बोतलें बाहर ले आया और उन्हें एक एक करके सड़क पर पटकने लगा। उसने पहली बोतल उठाई और उसे सड़क पर फेंकते हुए कहा, "तेरे कारण से ही मेरा घर बिका है। दूसरी बोतल उठाई तो बोला, "तेरी वजह से मेरी बीवी मुझे छोड़ गई।" उसने तीसरी बोतल उठाई और कहा, “तेरे कारण ही मेरे बच्चे मुझसे नफरत करते हैं।" आखिर में उसने जब चौथी बोतल उठाई तो वह भरी हुई निकली, जिसे वह अपनी बगल में दबाते हुए बोला, "तू तो एक तरफ होजा, तेरा कोई कसूर नहीं है।” ज़ाहिर है कि यदि शराब छोड़ने वालों के संकल्प इसी तरह के होंगे तो वे कदापि शराब से छुटकारा नही पा सकते ।