मंहगें चुनावों का बंधक बनता लोकतंत्र


 


आजादी के बाद देश में होने वाले चुनावों के बारे में संभवतः हमारे संविधान निर्माताओं ने भी कभी यह नहीं सोचा होगा कि एक वक्त ऐसा आयेगा जब हमारे चुनाव सबसे महंगे बन जायेंगे और इन चुनावों में योग्य, चरित्रवान और पारदर्शी लोगों की जगह पर धनबल का बोलबाला रहेगा। आम चुनावों की तारीख का ऐलान होने के बाद लगता है कि इस बार 2019 का चुनाव सबसे खर्चीला चुनाव साबित होगा।


सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज और अन्य राजनैतिक विश्लेषकों का अनुमान है कि भारत के 29 राज्यों और 7 केन्द्र शासित प्रदेशों में होने |वाले इस बार के चुनाव 50 हजार करोड़ रूपये तक खर्च हो सकते हैं। कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस के मुताविक भारत में साल 2019 का यह चुनाव अमेरीकी चुनावी खर्च को भी पीछे छोड़ देगा। 2019 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव और संसदीय चुनावों में 650 करोड़ डालर (मौजूदा विनिमय दर के अनुसार 46.211 करोड़ रूपये) खर्च हुए थे। इसके बरक्स भारत में 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में 35.547 करोड़ रूपये (500 करोड़ डालर) खर्च हुए थे। लेकिन अब लगता है कि भारत में होने वाला यह आम चुनाव शायद दुनिया का सबसे मंहगा चुनाव साबित होगा। अमेरिका में जहां हर व्यक्ति 6,000 रूपये से ज्यादा प्रतिदिन खर्च करता है, वहीं भारत में 60 प्रतिशत से ज्यादा लोगों का प्रतिदिन का खर्च तीन डालर यानी 210 रूपये है। अमेरिका के लिए चुनावों का महंगा होना बहुत चिंता का विषय नहीं है लेकिन भारत में चुनाव पर होने वाले अथाह खर्च को अब अनेक विचारक भारतीय जनतंत्र की एक बीमारी मानते हैं। इन विचारकों का मानना है कि अधिकतर भारतीय लोगों के पास प्रतिदिन खर्च के लिए 200 रूपये भी नहीं होते लेकिन यहां प्रति मतदाता का चुनावी खर्च 560 रूपये के करीब पहुंच जाता है।


भारतीय चुनावों का महंगे होने से जहां साधारण भारतीय जन चुनाव प्रक्रिया में बाहर होगए है वहीं पर यह व्यवस्था तेजी से धनवानों के कब्जे में जा रही है। ऐसे में सस्ते चुनावों की उम्मीद करना अब बेमानी लगता है। मैंने अपने जीवन में कई चुनाव देखे हैं जिन पर ज्यादा पैसा खर्च नहीं होता था और चुनाव के बाद लोकसभा और राज्य सभा में ऐसे ऐसे चेहरे नजर आते थे जिनके चरित्र पर किसी किस्म के दाग भी नहीं होते थे। देश के रेलमंत्री और कार्यवाहक प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा कैथल में एक किराये के मकान में रहते थे और नंदा बंस सर्विस के नाम से एक छोटी सी बस सेवा चलाते थे। अपने आखिरी दिनों में वे डिफेंस कालौनी में एक गिराये गए मकान में रहते थे जब कि किराया देने में देरी हो जाने की वजह से मकान मालिक ने उनका सामान सड़क पर रखवा दिया था।


इसी तरह भारत के प्रधानमंत्री रहेलाल बहादुर शास्त्री जब कांग्रेस के उम्मीदवार बनकर चुनाव लड़े तो उन दिनों कांग्रेस पार्टी की ओर से हर प्रत्याशी की तरह उन्हें भी एक जीप व 2000 रूपये दिये गए। शास्त्री जी के चुनाव का खर्च 800 रूपये आया और बाकी 1200 रूपये उन्होंने पार्टी को वापस लौटा दिये थे। वैसे लोग तो अब ढूंढे से भी नहीं मिलते। अब तो वही लोग चुनाव लड़ते हैं जिनके पास खर्च करने के लिए अकूत संपत्ति है। अब लोकसभा का एक उम्मीदवार भी 5 से 25 करोड़ रूपये तक खर्च करता है जबकि अभी हर लोकसभा प्रत्याशी के लिए चुनाव खर्च सीमा 70 लाख रूपये तक की गई है, जो 2014 के चनाव में 28 लाख थी।


चुनाव जीतने की लालसा में पैसे को पानी की तरह वही लोग बहा सकते हैं जिनके पास खर्च करने के लिए बेशुमार काला धन है। जिस देश में ग्राम प्रधान के पद के लिए उम्मीदवार एक-एक करोड़ रूपये खर्च कर रहे हों और निगम पार्षद और विधायक पद के चुनाव में तीन से 15 करोड़ तक खर्च करते हों, वहां यह कौन मान सकता है कि लोकसभा के चुनावों के प्रत्याशी कम पैसा खर्च करेंगे। आज तो राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए भी लोग सौ-दो सौ करोड़ रूपये तक का खर्च कर देते हैं, तो ऐसे में देश की सियासत में ईमानदारी का ढूंढना कोई आसान काम नहीं है। वह पहले जमाने की बात थी कि जब रोटी-रोजी का सीमित जरिया होने के बावजूद भी लोग पालिका चुनाव से लेकर विधायक पद पर जीत जाते थे। उनका राजनीति में आने का उद्देश्य भी जनसेवा ही होता था। मगर अब की राजनीति सिर्फ एक धंधा बनकर रह गई है जिसमें प्रत्याशी करोड़ो खर्च करके इससे दुगना कमाने की जुगत में रहते हैं। देश भी यह सोचकर हैरत में है कि मंहगे चुनावों में नोट चलते हैं, नियम कायदे नहीं। सच तो यह है कि चुनाव में भारी रकम फेंकने की बाध्यता ने ही हमारे राजनैतिक नेतृत्व को भ्रष्ट बनाया है और यह ठीक है कि इस समस्या से निपटने के लिए चुनाव आयोग ने भी खर्च सीमा तय करने और चंदे की व्यवस्था में पारदर्शिता लाने की पहल की है, लेकिन उसके इस कदम का तोड़ भी राजनैतिक दलों ने निकाल लिया है। दिखावे के लिए हर प्रत्याशी आय–व्यय के आंकड़े जरूर पेश करते हैं लेकिन वे इस मामले में परदर्शिता बरतने में कतई राजी नहीं हैं। राजनैतिक पार्टियां बेजा तरीके से अपना कोव भरने के प्रयास ही नहीं करती बल्कि अब तो यह भी सुना जाने लगा है कि कई पार्टियां पैसे लेकर प्रत्याशियों को टिकट देने लगी है। चुनावों में अमीर लोग किस तरह से पैसा बहाते हैं यह बात किसी से छिपी नहीं है। इस बार आम चुनाव की घोषणा के एक पखवाड़े के भीतर चुनाव आयोग द्वारा गठित निगरानी दस्ते ने विभिन्न राज्यों से करीब 540 करोड़ रूपये की नगदी, जेवर, शराब व नशीले पदार्थों की जब्ती की। लेकिन चुनाव आयोग की भी एक सीमा है कि वह जगह निगरानी दस्ते तैनात नहीं कर सकता। चुनाव खर्च के मामले में प्रत्याशी की खर्च सीमा तो तय है पर पार्टी के लिए कोई सीमा नहीं रखी गई है। ऐसे में बहुत सारे प्रत्याशी अपना खर्च पार्टी के खाते में दिखलाते हैं। चुनाव आयोग को गैरकानूनी तरीके से किए जाने वाले खर्चे पर नजर रखने का अधिकार तो है पर वह किसी प्रत्याशी को इसके लिए दंडित नहीं कर सकता। इसी बात का फायदा उठाकर अपने चुनाव में करोड़ो रूपये खर्च करने वाले प्रत्याशी तय सीमा तक के खर्च की विवरणी तो चुनाव आयोग को जमा करा देते हैं पर अपना वास्तविक खर्च नहीं बताते। इसीलिए मैं कहता हूँ लोकतंत्र में जिस चुनाव को आम आदमी एक त्योहार के जैसा समझता हैं, उसे धन-बल वालों ने अपना कार्निवल बना लिया है। जो बड़ी और कार्पोरेट कंपनियां चुनावों में राजनैतिक दलों को फंडिंग करती है उसका मकसद भी बदले में विजेता पार्टियों से अपने लिए रियायतें व सुविधाएं पाना ही होता है। कभी राजनैतिक दल लोगों से एक–एक, दो-दो रूपये चंदा लिया करते थे, लेकिन अब उन्हें भी मोटा चंदा देने वाले लोग ज्यादा अच्छे लगते हैं, भले ही उनके कारोबार काली कमाई से क्यों न चल रहे हों।


चुनाव को किफायती बनाने के लिए चुनाव आयोग की भी कोई विशेष तैयारी नजर नहीं आती। इसीलिए राजनीति में पैसे वालों के अतिरिक्त दागी उम्मीदवारों का चुनाव लड़ना हमारे लोकतंत्र की एक बिडम्बना है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का विधि मंत्रालय से यह पूछना बहुत वाजिब है कि उसके आदेश के बावजूद कुछ वर्षों में उम्मीवारों की संपत्ति व आय में वृद्धि की निगरानी करने के लिए स्थाई तंत्र क्यों नहीं बनाया गया? 


डेनमार्क व कुछ अन्य यूरोपीय देशों के चुनावों को इसलिए आदर्श कहा जाता है क्योंकि वहां यह सुनिश्चित है कि चुनावों में पैसे की भूमिका न्यूनतम रहेगी। ऐसी स्थिति में जहां हमारी चुनावी प्रक्रिया धन के प्रवाह में लोकतंत्र को बंधक बना रही है तो उसमें भी व्यापक सुधारों की जरूरत है। मतदाताओं को भी चाहिये कि वे किसी प्रत्याशी या पार्टी की महंगी रैलियां, बैनर व झंडे आदि के धूम-धड़ाके देखकर उन्हें वोट न दें, बल्कि उन्हें ही वोट दे जो चुनाव में धन के कम प्रवाह के साथ जनता के लिए नेकनीयत से कुछ करने के तलबगार हों।