मध्यम वर्गीय आक्रोश के लेखक विजय तेंदुलकर


कभी शिव सेना की राजनीति को ध्यान में रख कर 'घासीराम कोतवाल' जैसा विवादास्पद नाटक रचने वाले विजय तेंदुलकर के मन में मध्यम वर्ग और 'राजनीतिक नेताओं के पाखंड के खिलाफ गहरा गुस्सा रहा जो उनके लगभग सभी नाटकों और फिल्मी पटकथाओं में उभर का सामने आया। तेंदुलकर मध्यम वर्ग और राजनीतिक नेताओं दोनों से ताजिन्दगी नाराज रहे। उनका कहना था कि दोनों ही बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन उनके जीवन का आचरण उसके उलट होता है। उन्होंने इस क्रम में पत्रकारों को भी नहीं बख्शा और 'कमला' के जरिए यह दर्शाया कि सनसनीखेज पत्रकारिता के लिए किस स्तर तक जाया जा सकता है और महिला अधिकारों की डींग हांकने वाले पत्रकार अपनी पत्नी से कैसा सुलूक करते हैं। तेंदुलकर ने 1972 में शिव सेना के राजनीतिक उदय के परिदृश्य में 1976 में 'घासीराम कोतवाल' लिखा जिसके बाद से उनकी बाल ठाकरे से दोस्ती ही नहीं टूट गई बल्कि शिवसेना ने इस नाटक के मंचन का जबरदस्त विरोध किया। नाटक में नाना फडनवीस के जरिए दिखाया गया है कि सत्ता में लोग किस तरह विचारधाराओं का अपने हित के लिए उपयोग करते हैं और उपयोगिता समाप्त होते ही कैसे उसे त्याग देते हैं। तेंदुलकर के करीबी रहे विख्यात रंगकर्मी और फिल्म अभिनेता अमोल पालेकर ने बतायाविजय आज के राजनीतिज्ञों से बहुत नाराज रहते थे। वे उन्हें 'गिद्ध' कहते थे और उनका मानना था कि ये लोग समाज और देश को रसातल में ले जा रहे हैं। यह भी अजीब विडंबना है कि मृत्यु दंड के घोर विरोधी तेंदुलकर गुजरात दंगों से इतने आहत हुए कि उन्होंने यहां तक कह डाला कि अगर मेरे पास पिस्तौल होती तो मैं मोदी को गोली मार देता। बाद में गुस्सा शांत होने पर उन्होंने माना कि भावावेश में वह ऐसा कह गए थे लेकिन इस तरह की बातें समस्या का समाधान कतई नहीं हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक और 'घासीराम कोतवाल' के मुख्य पात्र नाना फड़नवीस की यादगार भूमिका निभाने वाले प्रोफेसर रामगोपाल बजाज ने कहा कि समाज में रिश्तों के ढकोसलों और मर्द द्वारा औरत का इस्तेमाल करने लेकिन उसे कोई ओहदा और सम्मान नहीं देने के चलन पर तेंदुलकर जैसी चोट करने वाला भारत में कोई दूसरा नाटककार नहीं हुआ। विख्यात रंगकर्मी डॉ. सईद आलम समाज में व्याप्त ढकोसलों को उजागर करने की तेंदुलकर की प्रतिबद्धता के तो कायल हैं लेकिन इसके लिए उनके नाटकों में इस्तेमाल की गई अश्लील भाषा और बेवजह की गाली गलौच से सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा कि मंटो ने भी रिश्तों के ढकोसलों की धज्जियां उड़ाई हैं लेकिन भाषा प्रयोग में अश्लीलता की सीमा पार नहीं की। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल के प्रमुख सुरेश शर्मा का मानना है कि तेंदुलकर ने रिश्तों के फूहड़पन को भी इतनी खूबसूरती से दिखाया है कि अश्लील तत्व बुरे नहीं सहज लगते हैं। उनके नाटकों के पात्र काल्पनिक नहीं बल्कि जीवंत होते हैं इसीलिए उनकी भाषा भी ढोंगी नहीं हो कर वास्तविक है। 'घासीराम कोतवाल', 'सखाराम बाइंडर', 'खामोश अदालत जारी है', 'अरविंद देसाई की अजीब दास्तान' आदि 30 नाटकों के अलावा तेंदुलकर ने 'अर्धसत्य', 'आक्रोश', 'मंथन' और 'कमला' आदि फिल्मों की पटकथाएं भी लिखीं। जमीन से जुड़े पात्रों को रचने के कारण ही तेंदुलकर भारत के वह नाटककार बने जिनके नाटकों का देश की सभी भाषाओं और क्षेत्रों में सबसे अधिक मंचन किया गया। तेंदुलकर को उनकी रचनाओं के लिए पद्मभूषण, संगीत नाटक अकादमी और कालीदास आदि सम्मानों से सम्मानित किया गया। इस विख्यात नाटककार का जन्म छह जनवरी 1928 को हुआ और 19 मई 2008 को वह यह दुनिया छोड़ गए।