लोकतंत्र के लिए खतरा बनता मीडिया



आज से तीन दशक पहले जब मैं दिल्ली प्रेस में चीफ रिर्पोटर था तो उस समय इस संस्थान के संपादक श्री विश्वनाथ जी मेरे लेखन से काफी प्रभावित थे और समय-समय पर वह मेरा मार्गदर्शन भी किया करते थे। तब उनकी पत्रिका 'सरिता' सच में न केवल रूढियों का खंडन करने में मशहूर थी बल्कि इस पत्रिका में नशे से संबंधित विज्ञापन तक स्वीकार नहीं किये जाते थे। भले ही नशीले पदार्थों की लॉबी अपने विज्ञापनों के लिए मुंहमागी कीमत देने को तैयार रहती थी। दिल्ली प्रेस में रहकर मुझे विश्वनाथ जी का जो प्यार व सम्मान मिला वह मेरे लिए किसी पदम भूषण से कम नहीं है। इसी संस्थान में रहकर मैंने पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों को समझा जिसमें किसी भी पत्रकार के लिए पहला सिद्धांत यह है कि बिना प्रमाण के कुछ भी लिखना या बोलना नहीं। दूसरे किसी के दिए हुए तथ्यों को बिना खुद परखे उन पर विश्वास नहीं करना। तीसरे यदि किसी के विरूद्ध कोई विषय उठाना है तो उस व्यक्ति का उन बिंदुओं पर जवाब या वक्तव्य लेना ज़रूरी है। इन सब के बावजूद मैं अपने पत्रकार दोस्तों से यह भी कहता था कि सभी राजनैतिक दलों से बराबर दूरी बनाकर केवल जनता के हित में बात की जाए और उसी के मुद्दे उठाये जायें तभी हम लोकतंत्र का चौथा खम्भा होने का दायितव ईमानदारी से निभा सकेगें। आज मैं पूरी विनम्रता से यह कह सकता हूं कि जहां तक संभव हुआ, मैंने अपनी पत्रकारिता को उपरोक्त चारों सिद्धांतों के इर्द गिर्द ही रखा। मैं यह मानता हूं कि जो पत्रकार बेबाकी और सच्चाई के साथ। किन्हीं भ्रष्ट लोगों के चेहरे का नकाब उतारते हैं, उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है लेकिन । ऐसे लोगों को दुनिया याद भी रखती है। आज प्रिंट मीडिया से ज्यादा इलैक्ट्रनिक मीडिया को देखने की चाहत प्रायः सभी में रहती है और इसके लिए कई टीवी चैनल अब वही सब परोसने की होड़ में लगे हैं, जिनसे उनकी टीआरपी बढ़ती हो। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से देश के इलैक्ट्रानिक मीडिया का अधिकतर हिस्सा पत्रकारिता के सिद्धांतों की अवहेलना करता दिखलाई देता है। लगता है कि कुछ एंकर और संवाददाता एक राजनैतिक दल के जनसम्पर्क अधिकारी बन गए हैं और उनका काम सिफ सत्ता का पोपेगेंडा करना ही रह गया है। ऐसे चैनल व एंकर न तो तथ्यों की पड़ताल करते हैं और न ही व्यवस्था से सवाल करते हैं। अब तो वे यह कहने में भी संकोच नहीं करते कि जो मीडियाकर्मी या जागरूक लोग उनके पोषक राजनैतिक दल के हिमायती नहीं हैं, वे सब देशद्रोही हैं और जो उनके साथ खड़े हैं वे सब देशभक्त हैं। यह मानसिकता मीडिया के पतन की पराकाष्ठा है।


14 फरवरी 2019 से पहले टीवी चैनलों पर मंदिर-मस्जिद का तनाव था, अब वह तनाव हिंदु मुस्लिम और मंदिर मस्जिद से छिटक कर पाकिस्तान के नाम से परोसा जा रहा है। ताजा उदाहरण पुलवामा और पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत के हवाई हमले का है। इसमें कितने पत्रकारों या मीडियाकर्मियों ने सरकार से यह सवाल पूछा है कि भारत की इंटेलीजेंस ब्यूरों, रॉ, गृहमंत्रालय, जम्मू कश्मीर पुलिस, मिल्टरी और सीआरपीएफ के रहते साढ़े तीन सौ किलो आरडीएक्स से लधे एक नागरिक वाहन से हमारे सीआरपीएफ के काफिले पर हमला करके हमारे 42 जांबाज सैनिकों के परखच्चे उड़ा दिये। इन बेचारों को लड़कर अपनी बहादुरी दिखाने का मौका भी नहीं मिला। कितनी मांओ की गोद सुनी हो गई, कितनी युवतियां जवानी में विधवा हो गईं। कितने नौनिहाल यतीम हो गए? इस घटना के लिए कौन जिम्मेदार है और कितने कितनी युवतियां जवानी में । नौनिहाल यतीम हो गए? 


इस घटना के लिए कौन जिम्मेदार है और कितने लोगों को पकड़ा गया यह पूछने के बजाय यदि मीडिया चिल्ला चिल्ला कर युद्ध का उन्माद पैदा करे तो वह भी किसी को अच्छा नहीं लगता। यही बात पाक अधिकृत कश्मीर वालाकोट में हुए हवाई हमले के संदर्भ में भी लागू होती है। पहले मीडिया वालों ने यह शोर मचाया कि साढे तीन सौ आतंकवादी मारे गए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा 250 आतंकवादी मारे गये। वायु । कितने मरे यह सरकार बतायेगी? सेना प्रमुख ने कहा कि हमारा निशाना सही था,  कितने मरे यह सरकार बतायेगी?


तो क्या हमले के तुरंत बाद 300 मरे आतंकवादियों को मीडिया ने देखा था या बिना देखे ही न्यूज चलानी शुरू कर दी? टीवी चैनलों ने हवाई जहाजों से गिरते बमों की वीडियो भी दिखलाई और बाद में कहा कि ये वीडियों काल्पनिक थीं। ऐसे में अब यदि अंर्तराष्ट्रीय मीडिया मौके पर पहुंचकर सबको यह बताने में लगा है कि हमारे इस हवाई हमले से कुछ पेड़ टूटे हैं, कुछ मकान दरके हैं और एक आदमी की सोते हुए मौत हुई है, तो किसका यकीन करें? अपने मीडिया का या अंर्तराष्ट्रीय मीडिया का।


देश के लोग अब यह समझने लगे हैं कि जो मीडिया सत्ता की चाकरी में लग जाता है वह लोगों को मुख्य मुद्दों से हटाकर दूसरे मुद्दों की तरफ मोड़ने की कोशिश करता है, जबकि ऐसा करना लोकतंत्र के हित में नहीं है।


सही सवाल और सही सूचना नागरिकों के लिए आक्सीजन के जैसी होती है, लेकिन लगता है कि कुछ मीडियाकर्मी  आक्सिजन के इस बाल्ब को भी बंद करने में जुटे हैं। वे अपनी प्रायोजित डिबेटस में भी नागरिकों को अपने दूसरे सवालों का मनमर्जी से जवाब ले रहे हैं। पिछले पांच सालों से देश के युवाओं की नजर सरकार के हर पोर्टल व अखबारों पर टिकी रहती है कि नौकरी की खबरें या सूचनाएं कब मिलेगी? दो करोड़ नौकरियों को तलाशते तलाशते हर साल लाखों नौजवान ओवरएज हो रहे हैं लेकिन इस पर मीडिया ज्यादा संजीदा नहीं है। आपके खाते में 15 लाख रूपये डालने का जुमला कहां गायब हो गया, यह अब मीडिया नहीं दिखलाता। उसे तो पाकिस्तान पर किए गये हमले की रणभेरियां ही सुनाई देती हैं। जो सूचनाएं गोपनीय होनी चाहिये थीं वे खुलेआम परोसी जा रही हैं। घंटो की बेहूदा डिबेटस में भी जनता के मुद्दों पर बात नहीं होती। अपवाद स्वरूप दो चार टीवी चैनलों को छोड़कर लगता है कि बाकी के चैनल अब बिकाऊ हो गये हैं और सच परोसने की जगह मामलों को सनसनीखेज बनाना उनकी आदत हो गई है। आगामी लोकसभा चुनाव में सिर्फ दो महीने रह गए हैं। ऐसे में अगर कोई मीडिया चुनावों की बिसात पर जनता को सच नहीं दिखलायेगा और झूठ का ही प्रोपेगड़ा करेगा तो उसे भी जमीनी हकीकत को जानने वाले दर्शक बंद कराने का अधिकार रखते हैं। इसलिए टीवी चैनलों को अपने गिरेबान में झांकना चाहिये कि वे किस किस्म की पत्रकारिता कर रहे हैं? वैसे भी देश का पैसा विकास से ज्यादा विज्ञापनों पर खर्च हो रहा है जिसका पूरा लाभ लेने वाली मीडिया से निष्पक्षता की उम्मीद रखना बेमानी है।