धर्म की शतरंज


एक दिन मैंने ईश्वर के साथ शतरंज खेली। पहली चाल मैंने चली और बोला, 'मैं एक नया धर्म बनाना चाहता हूं।' ईश्वर ने अपना प्यादा आगे बढ़ाया और बोला, 'तो, बना लो न। रोका किसने है?' जैसे ही ईश्वर ने कहा ‘रोका किसने है मैंने ईश्वर का प्यादा मार लिया और कहा, 'नहीं, रोका तो किसी ने नहीं है, लेकिन ऐसा रिवाज है कि जब भी कोई नया धर्म शुरू करना हो तो ईश्वर से आज्ञा ली जाती है।' 'कौन कहता है?' ईश्वर ने अगला मोहरा चलते हुए कहा। 'सब कहते हैं मैंने ईश्वर का दूसरा मोहरा भी मार लिया। ‘तो तुम भी कह देना।' ईश्वर ने अगली चाल सोचते हुए कहा। तो, तुम्हारी आज्ञा है?' 'मैंने तुमको मना किया है क्या?' ईश्वर ने शतरंज की बाजी से सिर उठा कर कहा। 'नहीं, मना तो नहीं किया, लेकिन किसी ने प्रमाण मांगा तो?' 'किस बात का प्रमाण?' 'यही कि ईश्वर ने मुझे आज्ञा दी है।' 'पहले किसी से प्रमाण मांगा गया था क्या?' 'तुम गोल-गोल बात क्यों करते हो?' ‘क्योंकि मैं ईश्वर हूं' 'ईश्वर सीधी बात नहीं कर सकता क्या?' 'नहीं।' 'क्यों?' 'क्योंकि ईश्वर को बड़ा रहस्यमय माना जाता है। सीधी बात करेगा तो उसके रहस्य का क्या होगा?' 'तुम तो बात को और उलझा रहे हो।' 'इसी को ईश्वर की लीला, उसकी माया, उसकी कारसाजी कहा जाता है।' ईश्वर ने ऊंट की चाल चली और मेरी बाजी अटका दी।


कुछ दिन बाद मैं ईश्वर से फिर मिला। ईश्वर ने पूछा, 'अपना नया धर्म बना लिया?' 'हां, करीब, करीब ।' 'कैसा है?' 'तुम्हें तो मालूम होगा। तुम तो ईश्वर हो। सब-कुछ जानते हो' 'सो तो ठीक है, लेकिन तुम्हारा अपने धर्म के बारे में क्या ख्याल है?' 'मेरा धर्म सच्चा है।' 'तो, झुठा किसका है ?' 'तुमने यह सवाल क्यों पूछा?' 'क्योंकि सच और झूठ सापेक्ष होते हैं। अगर कोई सच्चा है तो कोई झूठा भी होगा।' 'मुझे किसी और की बात नहीं करनी। मुझे तो बस यही कहना है कि मेरा धर्म सच्चा है।' 'ठीक है।' 'तो तुम भी यह मानते हो कि मेरा धर्म सच्चा है?' 'मेरा मतलब यह है कि अगर तुम मानते हो कि तुम्हारा धर्म सच्चा है तो ठीक है। तुम मानते हो या नहीं?' 'मेरे मानने से क्या होगा?' 'क्यों तुम नहीं मानोगे तो मेरे धर्म की विश्वसनीयता कैसे कायम होगी?' 'वह करवाना तुम्हारा काम है।' 'तुम्हारा नहीं है?' 'नहीं।' 'क्यों?' 'क्योंकि मैं थोड़ा कन्फ्यूज्ड हूं।' तुम ईश्वर हो कर भी कन्फ्यूज्ड हो?' 'हां। वैसे, तुम चाहो तो मेरा कन्फ्यूजन दूर कर सकते हो?' मेरी छाती गर्व से फूल गयी, ईश्वर मुझसे अपना कन्फ्यूजन दूर करने को कह रहा था। मैंने पूछा, 'अच्छा, बताओ मैं क्या करू?' तुम मुझे यह बताओ कि ईश्वर किस धर्म को सच्चा माने? ईश्वर का धर्म कौन सा है?' 'तुम्हें नहीं मालूम?' 'मुझे तो बहुत कुछ मालूम है। मैं ईश्वर हूं। लेकिन, मैं यह जानना चाहता हूं कि जो ईश्वर को जानते हैं, उन्हें कितना मालूम है?' 'तुम गोल-गोल क्यों बोलते हो?' 'क्योंकि ईश्वर को गोलाइयां बहुत पसंद हैं। दुनिया गोल है, सूरज गोल है, ब्रह्मांड गोल है। गोल ज्यादा सुंदर होता है। चपटी-चौकोर चीजों में किनारे होते हैं। कभी-कभी गड़ जाते हैं।' ईश्वर ने फिर से ऊंट की चाल चली थी। ईश्वर के साथ बहस करने में बात बहकती जा रही थी। इसलिए मैंने सीधे-सीधे पूछ लिया, कुछ दिन बाद मैं ईश्वर से फिर मिला। ईश्वर ने पूछा, 'अपना नया धर्म बना लिया?' 'हां, करीब, करीब ।' 'कैसा है?' 'तुम्हें तो मालूम होगा। तुम तो ईश्वर हो। सब-कुछ जानते हो' 'सो तो ठीक है, लेकिन तुम्हारा अपने धर्म के बारे में क्या ख्याल है?' 'मेरा धर्म सच्चा है।' 'तो, झुठा किसका है ?' 'तुमने यह सवाल क्यों पूछा?' 'क्योंकि सच और झूठ सापेक्ष होते हैं। अगर कोई सच्चा है तो कोई झूठा भी होगा।' 'मुझे किसी और की बात नहीं करनी। मुझे तो बस यही कहना है कि मेरा धर्म सच्चा है।' 'ठीक है।' 'तो तुम भी यह मानते हो कि मेरा धर्म सच्चा है?' 'मेरा मतलब यह है कि अगर तुम मानते हो कि तुम्हारा धर्म सच्चा है तो ठीक है। तुम मानते हो या नहीं?' 'मेरे मानने से क्या होगा?' 'क्यों तुम नहीं मानोगे तो मेरे धर्म की विश्वसनीयता कैसे कायम होगी?' 'वह करवाना तुम्हारा काम है।' 'तुम्हारा नहीं है?' 'नहीं।' 'क्यों?' 'क्योंकि मैं थोड़ा कन्फ्यूज्ड हूं।' तुम ईश्वर हो कर भी कन्फ्यूज्ड हो?' 'हां। वैसे, तुम चाहो तो मेरा कन्फ्यूजन दूर कर सकते हो?' मेरी छाती गर्व से फूल गयी, ईश्वर मुझसे अपना कन्फ्यूजन दूर करने को कह रहा था। मैंने पूछा, 'अच्छा, बताओ मैं क्या करू?' तुम मुझे यह बताओ कि ईश्वर किस धर्म को सच्चा माने? ईश्वर का धर्म कौन सा है?' 'तुम्हें नहीं मालूम?' 'मुझे तो बहुत कुछ मालूम है। मैं ईश्वर हूं। लेकिन, मैं यह जानना चाहता हूं कि जो ईश्वर को जानते हैं, उन्हें कितना मालूम है?' 'तुम गोल-गोल क्यों बोलते हो?' 'क्योंकि ईश्वर को गोलाइयां बहुत पसंद हैं। दुनिया गोल है, सूरज गोल है, ब्रह्मांड गोल है। गोल ज्यादा सुंदर होता है। चपटी-चौकोर चीजों में किनारे होते हैं। कभी-कभी गड़ जाते हैं।' ईश्वर ने फिर से ऊंट की चाल चली थी। ईश्वर के साथ बहस करने में बात बहकती जा रही थी। इसलिए मैंने सीधे-सीधे पूछ लिया,


ईश्वर के साथ बहस करने में बात बहकती जा रही थी। इसलिए मैंने सीधे-सीधे पूछ लिया, 'मैंने धर्म का ड्राफ्ट तो बना लिया है। अब मुझे यह साबित करना है कि मैंने जो धर्म बनाया है, वह ईश्वर की आज्ञा से बनाया है। ईश्वर के साथ बहस करने में बात बहकती जा रही थी। इसलिए मैंने सीधे-सीधे पूछ लिया, 'मैंने धर्म का ड्राफ्ट तो बना लिया है। अब मुझे यह साबित करना है कि मैंने जो धर्म बनाया है, वह ईश्वर की आज्ञा से बनाया है।


'मैं क्या करू?' 'और लोगों ने अब तक क्या किया है?' 'कोई जंगल में गया। कोई पहाड़ पर गया...' 'तो तुम भी चले जाओ ।' 'मैं नहीं जा सकता। मेरे इलाके में न जंगल हैं, न ऊंचे पहाड़।'सबसे ऊंची जगह कौनसी है?' 'छत्तीस मंजिल की एक बिल्डिंग है।' 'तो तुम उसकी छत पर चले जाओ। यह बिल्डिंग बिलकुल सही है।' 'कैसे?' 'छत्तीस माले की है न। अच्छा आंकड़ा है, 36 नया धर्म चालू करने के लिए यह आंकड़ा सबसे अच्छा है।' 'मैं समझा नहीं।' 'अरे भाई, इन्सानों के बीच 36 का आंकड़ा नहीं होता तो इतने सारे धर्म शुरू करने की जरूरत क्या थी? मैं तो पूछता हूं कोई भी धर्म शुरू करने की जरूरत क्या थी?' 'तुम ईश्वर हो कर भी यह जानना चाहते हो?' 'क्यों अगर इन्सान ईश्वर को समझना चाहता है, तो क्या ईश्वर को भी इन्सान को नहीं समझना चाहिए?


बात कहीं से कहीं पहुंच गयी। मैंने नहीं सोचा था कि ईश्वर से बात करना इतना उलझाने वाला काम होगा। मैंने ईश्वर से पूछा, 'तुम सीधी बात क्यों नहीं करते?' 'उसका कारण साफ है, मैं ईश्वर हूं। जितना तुम इन्सानों को जानते हो, उससे ज्यादा मैं जानता हूं। सीधी बात करूंगा तो फंस जाऊंगा लेकिन, मैंने तो नया धर्म बनाने की बात से बात शुरू की थी। बात तो तुम्ही ने उलझायी। ‘मानता हूं। लेकिन, नया धर्म बनाने से ईश्वर को क्या फायदा?' 'हर नया धर्म ईश्वर का नाम ज्यादा लेता है।' 'तो?' 'उससे ईश्वर का प्रचार होता है।' 'सही कहते हो। लेकिन एक बात बताओ, प्रचार से वास्तव में फायदा किसको होता है- माल को या दुकानदार को?' वाला काम होगा। मैंने ईश्वर से पूछा, 'तुम सीधी बात क्यों नहीं करते?' 'उसका कारण साफ है, मैं ईश्वर हूं। जितना तुम इन्सानों को जानते हो, उससे ज्यादा मैं जानता हूं। सीधी बात करूंगा तो फंस जाऊंगालेकिन, मैंने तो नया धर्म बनाने की बात से बात शुरू की थी। बात तो तुम्ही ने उलझायी। ‘मानता हूं। लेकिन, नया धर्म बनाने से ईश्वर को क्या फायदा?' 'हर नया धर्म ईश्वर का नाम ज्यादा लेता है।' 'तो?' 'उससे ईश्वर का प्रचार होता है।' 'सही कहते हो। लेकिन एक बात बताओ, प्रचार से वास्तव में फायदा किसको होता है- माल को या दुकानदार को?'