बच्चों का बचपन छीनकर उनके जीवन में अंधेरा न भरें
एक दिन जब सूर्यादय से पहले मैं अपनी नींद से जग गया तो मैंने सोचा कि चलो आज जापानी पार्क ही घूम आता हूं। रोहिणी का यह जापानी पार्क मेरे सोसाइटी फ्लैट से कुछ ही दूरी पर है। मैं जब मेन गेट से निकलकर बाहर सडक पर आया तो मैंने वहां चार ऐसे बच्चों को देखा जो अपने कंधों पर मटमैला सा बोरा लिए वहां पड़े कूड़े-कचरे में से कुछ ढूंढ रहे थे। मैंने जब इन बच्चों को वहां से प्लास्टिक व शराब की खाली बोतलें और पॉलीथिन की बनीं कुछ अन्य चीजें ढूंढते देखा तो ऐसे में मैंने एक बच्चे को अपने पास बुलाया और उससे पूछा कि तुम ये काम कब से कर रहे हो? तभी वह बच्चा बार-बार अपने साथियों की ओर देखने लगा।शायद वह यह सोच रहा था कि कहीं उसके साथी उससे ज्यादा माल न बटोर लें । मैंने उसके बाकी साथियों को भी बुलाकर उनसे पूछा कि क्या वे चाय पीयेंगे? तो कुछ संकुचाते हुए सभी ने अपना सिर हिला कर 'हां' कह दी। फिर उन बच्चों को अपने घर लाकर जब मैंने उन्हें चाय और बिस्कुट देते हुए पूछा कि तुम पढ़ने-लिखने की इस उम्र में ये कूड़ा-कचरा क्यों बीनते हो और इससे तुम्हें क्या बीनते हो और इससे तुम्हें क्या मिलता है?
तभी एक बच्चे ने कहा कि 'मैं सड़कों और सोसाइटी फ्लैट्स के बाहर लोगों के द्वारा फेंके गए कूड़े में से पॉलीथिन, लोहे की कीलें और प्लास्टिक की खाली बोतलें इकट्ठा करता हूंजिससे मुझे हर रोज चालीस-पचास रुपये मिल जाते हैं। इन पैसों से मैं अपनी बीमार बहन की दवा आदि ले आता हूं।' दूसरे बच्चे ने बताया कि 'मैं इससे पहले एक ढाबे में खाने की प्लेटें साफ करता था। लेकिन मेरा मालिक मुझे हर समय डांटता रहता था। वह मेरी पगार भी वक्त पर नहीं देता था। इसलिए मैंने वह काम छोड़ दिया। अब कमाई के लिए कभी-कभी गटर में भी उतरना पड़ता है। इससे कई लोग मुझे नीची निगाह से देखते हैं। तीसरे बच्चे ने कहा कि 'पिता के मरने के बाद मेरे घर में कमाने वाला कोई भी नहीं है। मेरी मां दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा लगाने का काम करती है जिससे झुग्गी का किराया देकर बाकी के पैसों से हम अपनी गुजर-बसर करते हैं। अगर मैं भी अपनी मां का साथ न दें तो वह कितने दिन तक मेरा और मेरी दो छोटी-बहनों का बोझ उठापायेगी? मैं तो फिर भी किन्हीं लोगों के शादी ब्याह की बची जूठन से अपना पेट भर लेता हूं, पर मेरी मां और बहनों को तो रोटी चाहिये ना। मैं पढ़ना चाहता हूं लेकिन मेरे घर की आर्थिक मजबूरियां मुझे ऐसा नहीं करने देतीं ।' चौथी बच्ची शायद गुंगी थी, पर उसकी आंखों में भी मेरे सवाल का यही उत्तर था कि गरीबी के कारण ही वह यह काम करती है। कूड़े में जिन्दगी ढूंढते इन बच्चों की व्यथा-कथा सुनकर मुझे यह एहसास हुआ कि हम चाहे जितना भी व्यवस्था परिवर्तन का स्वांग भर लें लेकिन हम सड़कों पर खाक छानने वाले इन बच्चों की तकदीर को नहीं बदल सकते। वैसे भी कोई मां-बाप यह नहीं चाहता कि उनके बच्चे न पढ़े, लेकिन कई बार घर के आर्थिक हालात ही उन्हें अपने बच्चों से मजदूरी करवाने को विवश कर देते हैं।
बच्चों का बचपन उनके जीवन में सरकार भले ही बाल कल्याण के ढेरों दावे करती हो या गरीब बच्चों को मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा देने की बात कहती हो, लेकिन जमीनी स्तर पर संविधान के अनुच्छेद, सरकारी घोषणाएं और गैर सरकारी संस्थाओं के उद्देश्य भी इतने खोखले लगते हैं कि जब हम यह देखते हैं कि शिक्षा का सूर्योदय देखने की ललक लिए देश के लाखों बच्चे बाल-मजदूरी की दलदल में फंसे हैंऔर इसी में ही उनका अपना बचपन एक सूर्यास्त के जैसा बन जाता है।
यह सुनने में अच्छा लगता है कि बच्चे देश का भविष्य हैं। लेकिन जहां चार से चौदह साल के अनेक बच्चे आजादी के 67वर्षों बाद भी किन्हीं घरों, दफ्तरों, कल-कारखानों, कार के गैराजों, दुकानों, होटलों, ढाबों, मनोरंजन स्थलों, कालीन, कांच व साबुन के उद्योगों, पटाखा फैक्ट्रियों, पेंसिल व ताले बनाने के कारखानों आदि में मेहनत मजदूरी करने के लिए अभिशप्त हों तो वहां कोई कैसे सोच सकता है कि बच्चे ही देश का भविष्य हैं?
बाल मजदूरों पर अक्सर सबकी नजर पड़ती है पर इसमें ज्यादातर लोग सिर्फ अफसोस जताने के अलावा कुछ नहीं करते । सरकारी आंकड़ों के मुताबिक इस समय हमारे देश में 44लाख बच्चे बाल श्रमिक हैं, जबकि गैर सरकारी आंकड़े इनकी तादाद 5करोड़ से भी ज्यादा बताते हैं। इन बाल मजदूरों में जो बच्चे खो त-खलियाना, पत्थर खदानों और ईंट भट्ठों पर बंधुआ मजदूरों का सा जीवन जीते हैंउनकी दुर्दशा और सिसकियां भी सुनने वाला भी कोई नज़र नहीं आता। वैसे हमारे यहां बाल मजदूरों की संख्या उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश में कहीं ज्यादा है। बाल मजदूरों की संख्या कुछ भी हो पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारे देश में बच्चों के साथ होने वाले अत्याचारों, अपराधों, शोषण और यातनाओं की अनगिनित घटनाएं रोज होती हैं।
प्रशासनिक सुस्ती के रहते गैर कानूनी तौर पर धड़ल्ले से चल रही प्लेसमैंट ऐजेंसियों ने तो मानों गरीबी, बेरोजगारी और पिछड़ेपन की मार सहते परिवारों के बच्चों को अपनी कमाई का एक बड़ा जरिया बना लिया है। ऐसे बहुत से काम-धंधे हैं जिनके मालिक यह कहते हैं कि बाल मजदूर उनके लिए सबसे सस्ते श्रमिक हैंजिन्हें कम वेतन देकर भी मन चाहा काम कराया जा सकता है। यह कोई मांग और आपूर्ति का मामला नहीं है, बल्कि बाल मजदूरों की वजह से ही प्रायः व्यस्क लोग बेरोजगार बने रह जाते हैंबाल मजदूरों को आजादी, शिक्षा और स्वास्थ्य भी नहीं मिल पाता जिसके वे हकदार हैं। हमारे यहां बाल तस्करी के तहत हर 8मिनट में एक बच्चा गुम हो जाता है और उनमें से आधे बच्चे फिर कभी नहीं मिलते। इनमें से कई बच्चे और बच्चियां तो सड़कों पर भीख मांगते नजर आते हैं। गुमशुदा बच्चों को ढूंढने का काम पुलिस का है मगर पुलिस भी इस मामले में उस स्तर पर कुछ नहीं करती, जिस स्तर पर यह काम होना चाहिए। बाल मजदूरी के खिलाफ तमाम तरह के नियम और कानूनों के रहते कम उम्र के बच्चों से काम कराने वाले खुद कितने लखपति और रोड़पति बने बैठे हैं, यह हर कोई जानता है। प्रशासनिक सुस्ती के रहते गैर कानूनी तौर पर धड़ल्ले से चल रही प्लेसमैंट ऐजेंसियों ने तो मानों गरीबी, बेरोजगारी और पिछड़ेपन की मार सहते परिवारों के बच्चों को अपनी कमाई का एक बड़ा जरिया बना लिया है। ऐसे बहुत से काम-धंधे हैं जिनके मालिक यह कहते हैं कि बाल मजदूर उनके लिए सबसे सस्ते श्रमिक हैंजिन्हें कम वेतन देकर भी मन चाहा काम कराया जा सकता है। यह कोई मांग और आपूर्ति का मामला नहीं है, बल्कि बाल मजदूरों की वजह से ही प्रायः व्यस्क लोग बेरोजगार बने रह जाते हैंबाल मजदूरों को आजादी, शिक्षा और स्वास्थ्य भी नहीं मिल पाता जिसके वे हकदार हैं। हमारे यहां बाल तस्करी के तहत हर 8मिनट में एक बच्चा गुम हो जाता है और उनमें से आधे बच्चे फिर कभी नहीं मिलते। इनमें से कई बच्चे और बच्चियां तो सड़कों पर भीख मांगते नजर आते हैं। गुमशुदा बच्चों को ढूंढने का काम पुलिस का है मगर पुलिस भी इस मामले में उस स्तर पर कुछ नहीं करती, जिस स्तर पर यह काम होना चाहिए। बाल मजदूरी के खिलाफ तमाम तरह के नियम और कानूनों के रहते कम उम्र के बच्चों से काम कराने वाले खुद कितने लखपति और रोड़पति बने बैठे हैं, यह हर कोई जानता है।
यहां यह बताना जरूरी है कि अन्र्तराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जब बच्चों को किसी ऐसे कार्य करने के लिए विवश होना पड़ता है जो इनका बचपना छीन लेता हो, नियमित रूप से उनके स्कूल जाने की क्षमता में बाधक बनता हो और जो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक या नैतिक रूप से खतरनाक व नुकसानदेह हो, ऐसे कार्यों को करने वाले बच्चों को 'बालमजदूर' कहा जाता है। यह एक विडम्बना है कि लेटिन अमेरिका, कैरोबियाई देशों, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में बाल मजदूरों की संख्या सर्वाधिक है और विश्व में बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए जितने भी कानून हैं, उन्हें कभी ढंग से लागू नहीं किया जाता इसलिए लच्चर कहलाते हैं।नेपाल में अधिकांश कामों के लिए 14साल की यहां यह बताना जरूरी है कि अन्र्तराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार जब बच्चों को किसी ऐसे कार्य करने के लिए विवश होना पड़ता है जो इनका बचपना छीन लेता हो, नियमित रूप से उनके स्कूल जाने की क्षमता में बाधक बनता हो और जो शारीरिक, मानसिक, सामाजिक या नैतिक रूप से खतरनाक व नुकसानदेह हो, ऐसे कार्यों को करने वाले बच्चों को 'बालमजदूर' कहा जाता है। यह एक विडम्बना है कि लेटिन अमेरिका, कैरोबियाई देशों, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में बाल मजदूरों की संख्या सर्वाधिक है और विश्व में बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए जितने भी कानून हैं, उन्हें कभी ढंग से लागू नहीं किया जाता इसलिए लच्चर कहलाते हैं।नेपाल में अधिकांश कामों के लिए 14साल की आयु सीमा निर्धारित है। पर वहां भी ईंट-भट्टे को बालश्रम से मुक्त रखा गया है। केन्या में औद्योगिक कामों के लिए 16साल से कम आयु के बच्चों पर प्रतिबंध है लेकिन कृषि को इससे मुक्त रखा गया है। हमारे यहां भी कानूनन 14वर्ष से कम आयु के बच्चों से कारखानों या खानों में काम कराने की अनुमति नहीं है। यहां बालश्रम निषेध और विनियमन एक्ट1986 के तहत 14साल से कम उम्र के बच्चों को उन 16पेशों और 65 प्रक्रियाओं में रोजगार पर पाबंदी लगाई गई है जो बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए खतरा बन सकते हैं। ऐसे में यदि कोई नियोजक गैरकानूनी तरीके से बच्चों को किन्हीं जोखिम भरे कामों में लगाता है तो उसके लिए उसे तीन साल की कैद और जुर्माने की सजा भी हो सकती है। महाराष्ट्र और कर्नाटक में इस प्रावधान के अन्र्तगत् कई लोगों को दंडित भी किया जा चुका है। लेकिन फिर भी बाल मजदूरी पर कोई लगाम लगती नज़र नहीं आती। वैसे भी बालश्रम निषेध और विनियमन कानून पुराना पड़ चुका है जिससे बच्चों के मौलिक अधिकारों की बातें सिर्फ कागजों पर ही सीमित दिखलाई देती है। आयु सीमा निर्धारित है। पर वहां भी ईंट-भट्टे को बालश्रम से मुक्त रखा गया है। केन्या में औद्योगिक कामों के लिए 16साल से कम आयु के बच्चों पर प्रतिबंध है लेकिन कृषि को इससे मुक्त रखा गया है। हमारे यहां भी कानूनन 14वर्ष से कम आयु के बच्चों से कारखानों या खानों में काम कराने की अनुमति नहीं है। यहां बालश्रम निषेध और विनियमन एक्ट1986 के तहत 14साल से कम उम्र के बच्चों को उन 16पेशों और 65 प्रक्रियाओं में रोजगार पर पाबंदी लगाई गई है जो बच्चों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए खतरा बन सकते हैं। ऐसे में यदि कोई नियोजक गैरकानूनी तरीके से बच्चों को किन्हीं जोखिम भरे कामों में लगाता है तो उसके लिए उसे तीन साल की कैद और जुर्माने की सजा भी हो सकती है। महाराष्ट्र और कर्नाटक में इस प्रावधान के अन्र्तगत् कई लोगों को दंडित भी किया जा चुका है। लेकिन फिर भी बाल मजदूरी पर कोई लगाम लगती नज़र नहीं आती। वैसे भी बालश्रम निषेध और विनियमन कानून पुराना पड़ चुका है जिससे बच्चों के मौलिक अधिकारों की बातें सिर्फ कागजों पर ही सीमित दिखलाई देती है।
आज सस्ते मजदूरों की मांग गांवों से बड़े शहरों तक में जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। हम रस्मी तौर पर हर वर्ष 14नवम्बर को बाल दिवस भी मनाते हैं लेकिन बाल मजदूरों की सुध तक नहीं लेते।अभी हाल ही में 'बचपन बचाओ आंदोलन' के जिस कै लाश सत्यार्थी को संयुक्तरूप से नोबल पुरस्कार दिया गया है, उनके संगठन ने भी अभी तक करीब 80हजार बच्चों को बाल मज़दूरी से आज़ाद कराया है। आज सस्ते मजदूरों की मांग गांवों से बड़े शहरों तक में जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है। हम रस्मी तौर पर हर वर्ष 14नवम्बर को बाल दिवस भी मनाते हैं लेकिन बाल मजदूरों की सुध तक नहीं लेते।अभी हाल ही में 'बचपन बचाओ आंदोलन' के जिस कै लाश सत्यार्थी को संयुक्तरूप से नोबल पुरस्कार दिया गया है, उनके संगठन ने भी अभी तक करीब 80हजार बच्चों को बाल मज़दूरी से आज़ाद कराया है। 11जनवरी 1954 को मध्यप्रदेश के विदिशा में जन्में और पेशे से इंजीनियर कैलाश सत्यार्थी का कहना है, 'मुझे बचपन से ही यह सवाल परेशान करता था कि आखिर मेरी तरह कुछ बच्चे स्कूल क्यों नहीं जा पाते? ऐसे में एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि यदि उसका बच्चा स्कूल जायेगा तो उसका परिवार भूखा रह जायेगा। बस यहीं से मैंने बच्चों को शिक्षा दिलाने और बालमजदूरी से मुक्त कराने का संघर्ष शुरू कर दिया। इसमें मुझे कई तरह की परेशानियां भी झेलनी पड़ीं। लेकिन अब मैं कह सकता हूं कि मुझे मिला नोबल पुरस्कार दुनिया भर के उन बच्चों का सम्मान हैजो अब भी दास प्रथा, बंधुआ मजदूरी और तस्करी को भुगत रहे हैं।' 11जनवरी 1954 को मध्यप्रदेश के विदिशा में जन्में और पेशे से इंजीनियर कैलाश सत्यार्थी का कहना है, 'मुझे बचपन से ही यह सवाल परेशान करता था कि आखिर मेरी तरह कुछ बच्चे स्कूल क्यों नहीं जा पाते? ऐसे में एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि यदि उसका बच्चा स्कूल जायेगा तो उसका परिवार भूखा रह जायेगा। बस यहीं से मैंने बच्चों को शिक्षा दिलाने और बालमजदूरी से मुक्त कराने का संघर्ष शुरू कर दिया। इसमें मुझे कई तरह की परेशानियां भी झेलनी पड़ीं। लेकिन अब मैं कह सकता हूं कि मुझे मिला नोबल पुरस्कार दुनिया भर के उन बच्चों का सम्मान है जो अब भी दास प्रथा, बंधुआ मजदूरी और तस्करी को भुगत रहे हैं।
कैलाश सत्यार्थी को मिले नोबल पुरस्कार पर हम चाहे कितने ही जश्न क्यों न मना लें लेकिन हमारे यहां ऐसे अफसर भी हैं जो प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान में अपनी सक्रियता दिखलाने की गर्ज से खुद तो मास्क और दस्ताने पहनकर गाजियाबाद की हिंडन नदी के किनारे पर खड़े रहे, जबकि उन्हीं के सामने अपने तन पर बिना कमीज और बनियान के कुछ बच्चे नदी का कैलाश सत्यार्थी को मिले नोबल पुरस्कार पर हम चाहे कितने ही जश्न क्यों न मना लें लेकिन हमारे यहां ऐसे अफसर भी हैं जो प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान में अपनी सक्रियता दिखलाने की गर्ज से खुद तो मास्क और दस्ताने पहनकर गाजियाबाद की हिंडन नदी के किनारे पर खड़े रहे, जबकि उन्हीं के सामने अपने तन पर बिना कमीज और बनियान के कुछ बच्चे नदी का कचरा निकाल कर बाहर लाते दिखलाई दिये। इन बच्चों की मानें तो उन्हें कचरा हटाने के लिए पैसे देने की बात कही गई थी। लेकिन बाद में उन्हें सिर्फ खाने के लिए कुछ समोसे थमा कर वहां से चलता कर दिया गया। अखबारों में जब इस तरह की तस्वीरें छपती हैं तो अफसरशाही भी संभवतः अपने किए पर शर्मिंदा नहीं होती। कचरा निकाल कर बाहर लाते दिखलाई दिये। इन बच्चों की मानें तो उन्हें कचरा हटाने के लिए पैसे देने की बात कही गई थी। लेकिन बाद में उन्हें सिर्फ खाने के लिए कुछ समोसे थमा कर वहां से चलता कर दिया गया। अखबारों में जब इस तरह की तस्वीरें छपती हैं तो अफसरशाही भी संभवतः अपने किए पर शर्मिंदा नहीं होती।
बाल मजदूरी के सवाल पर दिल्ली हाई कोर्ट ने वर्ष 2009 में कहा था कि जो लोग बच्चों से मजदूरी करवाते हैं उनके खिलाफ तुरंत कार्रवाई की जाए और उनसे बीस हजार रुपये वसूल करके पीड़ित बच्चे को बतौर मुआवजा दिया जाए। ऐसे बच्चों के पुर्नवास की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। लेकिन किसी सरकार ने अदालत के आदेश का सही से पालन तक नहीं किया है। दरअसल इस समस्या का संबंध गरीब परिवारों की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था से भी जुड़ा है। अगर बाल मजदूरी करने वाले बच्चों को काम से हटा दिया जाए तो उनके परिवारों में भरण-पोषण की समस्या भी आ खड़ी होती है। इसलिए बच्चों को काम से निकाल कर शिक्षा दिलाने की योजना बहुत कारगर नहीं हो पा रही। दूसरे जिन बच्चों को बालमजदूरी के चंगुल से छुड़ाया जाता है उनमें से 90प्रतिशत बच्चे तो फिर से मजदूरी करने के लिए वापस आ जाते हैंक्योंकि उनके लिए पुर्नवास की कोई ठोस व्यवस्था पहले से नहीं की जाती। ऐस बच्चों का बाल-दिवस और बाल मजदूरी से कोई लेना देना नहीं होता, मगर उन्हें पैसा कमाना आता है। इसीलिए वे सड़कों पर रोजमर्रा का सामान बेचकर अपने घरवालों के मददगार बने रहते हैं। बीते दिनों में श्रम विभाग ने दिल्ली उच्चन्यायालय में हलफनामा दायर करके यह चौंकाने वाली बात कही थी कि बाल मजदूरी से छुड़ाए गये बच्चों के पुर्नवास हेतु राज्यों में सहायता राशि भिजवाई गई थी, लेकिन किसी भी बच्चे को वह सहायता राशि मिली ही नहीं है। यहां यह पूछा जा सकता है कि जब सरकारों के पास ऐसे बच्चों के लिए पुर्नवास की कोई ठोस नीति ही न हो और उनकी सहायता राशि भी बच्चों तक न पहुंच पाए, तो आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? यह बात सभी जानते हैं कि हर बच्चे की पहचान अलग होती है और उड़ान भी अलग होती है। ऐसे में किसी बच्चे को अपनी ख्वाहिशों के बोझ के तले दबाना फिर उसका बचपन छीनकर उनके जीवन में अंधेरा भरना वाजिब नहीं है। जिस तरह मुरझाए हुए गुलाब फिर से नहीं खिल सकते, उसी तरह बाल मजदूरी के बंधक बनें बच्चों का डगमगाता वजूद भी कभी सुबह की रोशनी नहीं देख पाता।बाल मजदूरी के सवाल पर दिल्ली हाई कोर्ट ने वर्ष 2009 में कहा था कि जो लोग बच्चों से मजदूरी करवाते हैं उनके खिलाफ तुरंत कार्रवाई की जाए और उनसे बीस हजार रुपये वसूल करके पीड़ित बच्चे को बतौर मुआवजा दिया जाए। ऐसे बच्चों के पुर्नवास की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। लेकिन किसी सरकार ने अदालत के आदेश का सही से पालन तक नहीं किया है। दरअसल इस समस्या का संबंध गरीब परिवारों की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था से भी जुड़ा है। अगर बाल मजदूरी करने वाले बच्चों को काम से हटा दिया जाए तो उनके परिवारों में भरण-पोषण की समस्या भी आ खड़ी होती है। इसलिए बच्चों को काम से निकाल कर शिक्षा दिलाने की योजना बहुत कारगर नहीं हो पा रही। दूसरे जिन बच्चों को बालमजदूरी के चंगुल से छुड़ाया जाता है उनमें से 90प्रतिशत बच्चे तो फिर से मजदूरी करने के लिए वापस आ जाते हैंक्योंकि उनके लिए पुर्नवास की कोई ठोस व्यवस्था पहले से नहीं की जाती। ऐस बच्चों का बाल-दिवस और बाल मजदूरी से कोई लेना देना नहीं होता, मगर उन्हें पैसा कमाना आता है। इसीलिए वे सड़कों पर रोजमर्रा का सामान बेचकर अपने घरवालों के मददगार बने रहते हैं। बीते दिनों में श्रम विभाग ने दिल्ली उच्चन्यायालय में हलफनामा दायर करके यह चौंकाने वाली बात कही थी कि बाल मजदूरी से छुड़ाए गये बच्चों के पुर्नवास हेतु राज्यों में सहायता राशि भिजवाई गई थी, लेकिन किसी भी बच्चे को वह सहायता राशि मिली ही नहीं है। यहां यह पूछा जा सकता है कि जब सरकारों के पास ऐसे बच्चों के लिए पुर्नवास की कोई ठोस नीति ही न हो और उनकी सहायता राशि भी बच्चों तक न पहुंच पाए, तो आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? यह बात सभी जानते हैं कि हर बच्चे की पहचान अलग होती है और उड़ान भी अलग होती है। ऐसे में किसी बच्चे को अपनी ख्वाहिशों के बोझ के तले दबाना फिर उसका बचपन छीनकर उनके जीवन में अंधेरा भरना वाजिब नहीं है। जिस तरह मुरझाए हुए गुलाब फिर से नहीं खिल सकते, उसी तरह बाल मजदूरी के बंधक बनें बच्चों का डगमगाता वजूद भी कभी सुबह की रोशनी नहीं देख पाता।
बाल मजदूरी देश और समाज के लिए किसी कलंक से कम नहीं है और यह कलंक तभी मिटाया जा सकता है जब देश की सरकारें और समाज मिलकर इसके खात्मे की पहल करें। बाल मजदूरी को खत्म करना भले ही मुश्किल हो पर यह असंभव नहीं है। इसमें नेता, नारे और चमत्कार कुछ नहीं कर सकते। बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए एक ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति की जरुरत है जो यह जानती हो किहो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिएइस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए बाल मजदूरी देश और समाज के लिए किसी कलंक से कम नहीं है और यह कलंक तभी मिटाया जा सकता है जब देश की सरकारें और समाज मिलकर इसके खात्मे की पहल करें। बाल मजदूरी को खत्म करना भले ही मुश्किल हो पर यह असंभव नहीं है। इसमें नेता, नारे और चमत्कार कुछ नहीं कर सकते। बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए एक ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति की जरुरत है जो यह जानती हो किहो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिएइस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।